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पंचास्तिकाय प्राभृत
२०३ मग्मचारी-पूर्वोक्तनिश्चयव्यवहारमोक्षमार्गचारी । एवंगुणविशिष्टो भव्यवरपुण्डरीकः, वजदि-ब्रजति गच्छति । किं ? णिव्वाणपुरं-अत्यावाशसुखाद्यनंतपणाप्पदं शुद्धात्मोपलंभलक्षणं निर्वाणनगरं । पुनरपि किंविशिष्टः स भव्यः । धीरो-धीर: घारोपसर्गपरीषहकालेपि निश्चयरत्नत्रयलक्षणसमाधेरच्युत पाण्डवादिवदिति भावार्थः ।।७०।। इति कर्मरहितत्वव्याख्यानेन द्वितीयगाथा गता।
एवं “ओगाढयाद" इत्यादि पूर्वोक्तपाठक्रमेण परिहारगाथासप्तकं गतं । इति जीवास्तिकायव्याख्यानरूपेषु प्रभुत्वादिनवाधिकारेषु मध्ये पंचभिरंतरस्थलैः समुदायेन "जीवा अणाइणिहणा'' इत्याद्यष्टादशगाथाभिः कर्तृत्वभोक्तृत्वकर्मसंयुक्तत्वत्रयरय यौगपद्यव्याख्यानं समाप्तम् ।
हिन्दी तात्पर्यवृत्ति गाथा ७० उत्थानिका--अथानंतर पहलेके ही प्रभुत्वको फिर भी कर्मरहितपनेकी मुख्यतासे बताते
अन्वयसहित सामान्यार्थ-[जिणभासिदेण ] जिनेन्द्र कथनके द्वारा [ मग्गं] मोक्षमार्गको [समुवगदो] भलेप्रकार प्राप्त करता हुआ [णाणाणुमग्गचारी] समयग्ज्ञानके अनुसार धर्मके मार्गपर चलनेवाला [ धीरो] सहनशील धीर भव्य जीव [ उवसंतखीणमोहो] मोहको पहले उपशम पीछे मोहको क्षय करके [णिव्वाणपुरं ] मोक्षनगरको [ बजदि ] चला जाता
विशेषार्थ-वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत निश्चय तथा व्यवहार मोक्षमार्गको प्राप्त करता हुआ अर्थात् अच्छी तरह समझता हुआ कोई भव्योंमें मुख्य प्राणी निर्विकार स्वसंवेदन ज्ञानको या ज्ञानके आधारभूत शुद्ध आत्माको अपने लक्ष्य या आश्रयमें लेकर उसीके अनुकूल निश्चय तथा व्यवहार मोक्षमार्गपर चलता हुआ तथा उपशम सम्यक्त्व, क्षयोपशम तथा क्षायिक सम्यक्त्वको पाता हुआ और परम धीर वीर होकर घोर उपसर्गके सहनेके समयमें भी निश्चय रत्नत्रयमयी समाधिको पांडवादिकी तरह न त्यागता हुआ, मोहका सर्वथा क्षय करके अव्याबाध सुख आदि अनंतगुण समूहरूप तथा शुद्धात्माके लाभरूप निर्वाणनगर को चला जाता है ।।७०।।
इस तरह कर्मरहितपनेके व्याख्यानसे दूसरी गाथा कही । इसी तरह "ओगाढगाळ" इत्यादि पूर्वोक्त पाठके क्रमसे पूर्वपक्षका समाधानरूप सात गाथाएं पूर्ण हुईं। जीवास्तिकायके व्याख्यानरूप नव अधिकारोंके मध्यमें पांच अंतरस्थलोंसे समुदाय रूपसे "जीवा अणाईणिहणा' इत्यादि अठारह गाथाओंसे कर्तापना भोक्तापना और कर्मसंयुक्तापना इन तीनका एक साथ कथन पूरा हुआ।