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षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन अञ्जनसे लिप्त नहीं होते हैं, इससे निरञ्जन हैं इस विशेषणसे मस्करी सन्यासीके मतका निराकरण है, जो मुक्त होनेके पीछे फिर कर्मबन्ध होना व संसार होना मानते हैं । (५) वे सिद्ध भगवान अविनाशी हैं। कभी अपने शुद्ध चैतन्य द्रव्यके स्वभावको नहीं त्यागते हैं। इस विशेषणसे बौद्धमतका निराकरण है जो परमार्थसे कोई नित्यद्रव्य नहीं मानते हैं। क्षणक्षणा विनाशीक चैतन्यको संतानवर्ती भानते हैं (६, से सिद्ध नहातज सम्यक्त्व आदि आठ गुण धारी हैं। इस विशेषणसे ज्ञानादि गुणोंके अत्यन्त अभावको मुक्ति माननेवाले नैयायिक और वैशेषिक मतका निराकरण है (७) वे सिद्ध भगवान कृतकृत्य हैं। कुछ करना नहीं है परम संतुष्ट हैं। इस विशेषणसे ईश्वरको सृष्टिकर्ता माननेवालोंका निराकरण है। (८) वे सिद्ध भगवान् लोकाकाशके अग्रभागमें निवास करते हैं। इस विशेषणसे मंडलीक मतका निराकरण है जो कहते हैं कि आत्मा ऊर्ध्वगमन स्वभावसे सदा ही करता रहता है, कहीं भी विश्राम नहीं लेता है। इस गाथासे आठ मतान्तरों का खंडन हुआ।
सिद्ध भगवान् आठ प्रकार के कर्मोंसे रहित हैं-अर्थात् मोह कर्मने क्षायिक सम्यक्त्वको, ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्मने केवलज्ञान केवलदर्शन गुणोंको, अन्तरायने अनंतवीर्यको, नामकर्मने सूक्ष्म गुणको, आयुकर्मने अवगाहना गुणको, गोत्रकर्मने अगुरुलघु गुणको, वेदनीयने अव्याबाध गुणको ढक रखा था सो आठकर्मके नाश होनेसे सिद्धोंके आठ गुण प्रगट हो गये हैं और लोकाग्रपर निवास है इस दूसरी गाथा में कहे गये लक्षण के द्वारा सिद्धका स्वरूप कहा गया ।।७३।।
इस तरह जीवास्तिकायके सम्बन्धमें नव अधिकारोंकी चूलिकाके व्याख्यानको करते हुए तीन गाथाएँ कहीं।
इस तरह पूर्वमें कहे प्रमाण 'जीवोत्ति हवदिचेदा' इत्यादि नव अधिकारको सूचनाके लिये गाथा एक, प्रभुत्त्वकी मुख्यतासे गाथा दो, जीवत्वको कहते हुए गाथा तीन, स्वदेह प्रमाण है ऐसा कहते हुए गाथा दो, अमूर्त गुण बतानेके लिये गाथा तीन, तीन प्रकार चेतनाको कहते हुए गाथा दो, फिर ज्ञानदर्शन उपयोगको समझानेके लिये गाथा उगनीस, कर्तापना भोक्तापना और कर्मसंयुक्तपनाके व्याख्यानकी मुख्यतासे गाथा अठारह, चूलिका रूपसे गाथा तीन इस तरह सर्व समुदायसे त्रेपन गाथाओंको पंचास्तिकाय छः द्रव्यको कहनेवाले प्रथम महाधिकार में जीवास्तिकाय नामका चौथा अन्तर अधिकार समाप्त
हुआ।