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षड्वव्य- पंचास्तिकायवर्णन
है तथापि व्यवहारनयसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, प्रत्येक वनस्पति, साधारण वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, तुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रियरूप होनेसे दस स्थानगत या दसरूप है । अथवा यदि इन पृथ्वी आदिके दस स्थानोंको अलग-अलग ले लेवें और उपर्युक्त पदका पृथक् व्याख्यान करलेने पर उसके भी दस स्थान होते हैं। उन दोनोंको मिलानेसे यही जीव बीस भेदरूप हो जाता है। यह भावार्थ है ।।७१-७२।।
समय व्याख्या गाथा ७३
पयडिट्ठिदि - अणुभाग-प्पदेस बंधेहिं सव्वदो मुक्को ।
उड्डुं गच्छदि सेसा विदिसा - वज्जं गदिं जंति ।। ७३ ।। प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबंधैः सर्वतो मुक्तः ।
ऊर्ध्वं गच्छति शेषा विदिग्वज गतिं यांति ।। ७३ ।।
बद्धजीवस्य षड्गतयः कर्मनिमित्ताः । मुक्तस्याप्यूर्ध्वगतिरेका स्वाभाविकी - त्यत्रोक्तम् ।। ७३ ।। ।। इति जीवद्रव्यास्तिकायव्याख्या समाप्ता ।।
हिन्दी समय व्याख्या ७३
अन्वयार्थ – ( प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबंधैः ) प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंधसे ( सर्वतः मुक्त: ) सर्वत: मुक्त जीव ( ऊर्ध्वं गच्छति ) ऊर्ध्वगमन करता है, ( शेषाः ) शेष जीव ( भवान्तरमें जाते हुए ) (विदिग्वज गति यांति ) विदिशाएँ छोड़कर गमन करते हैं।
टीका - बद्ध जीवको कर्मनिमित्तक षड्विध गमन (छह दिशाओंमें गमन ) होता हैं, मुक्त जीव को भी स्वाभाविक ऐसा एक ऊर्ध्वगमन होता है। ऐसा यहाँ कहा है ।। ७३ ।। इस प्रकार जीवद्रव्यास्तिकायका व्याख्यान समाप्त हुआ ।
संस्कृत तात्पर्यवृत्ति गाथा ७३
अथ मुक्तस्योर्ध्वगतिः संसारिणां मरणकाले षड्गतय इति प्रतिपादयति, पर्याडडिदि अणुभागपदेसबंधेहिं सव्वदो मुक्को— प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबंधैर्विभावरूपैः समस्तरागादिविभावरहितेन शुद्धात्मानुभूतिलक्षणध्यानबलेन सर्वतो मुक्तोपि, उङ्कं गच्छदि- स्वाभाविकानंतज्ञानादिगुणैर्युक्तः सन्नेकसमयलक्षणविग्रहगत्योर्ध्वं गच्छति । सेसा - शेषाः संसारिणो जीवाः, विदिसावज्जं गर्दि जंति-मरणान्ते विदिग्वर्ज्या पूर्वोक्तषट्कयक्रमलक्षणमनुश्रेणिसंज्ञां गतिं गच्छन्ति इति । अत्र गाथासूत्रे " सदसिव संखो मक्कणि बुद्धो णेइयाइगो य वइसेसा । मंडलि दंसण विदूषण कयं अट्ठ" ( गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६९-६८ इति गाथोक्ताष्टमतांतर निषेधार्थं "अट्ठविहकम्मवियला