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पंचास्तिकाय प्राभृत
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हिं० ०ता० - उत्थानिका - अथानन्तर परमाणुके व्याख्यानकी मुख्यतासे दूसरे स्थलमें पांच गाथाएँ कही जाती हैं। प्रथम कहते हैं कि परमाणु नित्यपने आदि गुणों को रखनेवाला है ।
अन्वयसहित सामान्यार्थ - ( सब्धेसि ) सर्व ( खंधाणं ) स्कन्धोंका ( जो अंतो ) जो अन्तिम भेद है (तं ) उसको (परमाणु) परमाणु (वियाण ) जानो (सो) वह ( सस्सदो ) अविनाशी है, (असो) शब्दरहित है, ( एक्को) एक है, ( अविभागी ) विभागरहित है तथा ( मुत्तिभवो ) मूर्तिक है ।
पार्थ जो कोई हर्दयोंको नाश कर देता है उसको शुद्धात्मा जानो । इसी तरह जो ऊपर कहे छः प्रकार स्कंधोंका अंतिम भेद है उसको परमणु जानो । जैसे परमात्मा टंकोत्कीर्ण ज्ञाता द्रष्टा एक स्वभावरूप होनेसे द्रव्यार्थिकनयसे नाशरहित है इससे शाश्वत है । इसी तरह पुगलपनेके स्वभावको कभी न छोड़नेसे यह परमाणु भी नित्य है । जैसे शुद्ध जीवास्तिकाय निश्चयसे स्वसंवेदन ज्ञानका विषय होनेपर भी शब्दोंका विषय या शब्दरूप न होनेसे अशब्द है तैसे यह परमाणु भी यद्यपि शक्तिरूपसे शब्दका कारण है तथापि व्यक्तिरूपसे शब्द पर्यायरूप नहीं है इससे अशब्द है। जैसे शुद्धात्माद्रव्य निश्चयसे परकी उपाधि विना केवल सहायरहित एक कहा जाता है तैसे परमाणुद्रव्य भी क्यणुक आदि परकी उपाधिकसे रहित होनेके कारणसे केवल सहायरहित एक है अथवा एकप्रदेशी होनेसे एक है । जैसे परमात्माद्रव्य निश्चयसे लोकाकाशप्रमाण असंख्यात प्रदेशी है तो भी अपने अखंड एक द्रव्यपनेकी अपेक्षा भागरहित अविभागी है तैसे ही परमाणुद्रव्य भी अंशरहित होनेसे विभागरहित अविभागी है । फिर वह परमाणु अमूर्तिक परमात्मद्रव्यसे विलक्षण जो स्पर्श, रस, गंध, वर्ण मूर्ति उससे उत्पन्न होनेसे मूर्तिभव है या मूर्तिक है, ऐसा अभिप्राय है ।।७७।।
ऐसा परमाणुका स्वरूप कहते हुए दूसरे स्थनमें प्रथम गाथा कही ।
परमाणूनां जात्यंतरत्वनिरासोऽयम् ।
आदेस - मेत्त-मुत्तो धादु- चदुक्कस्स कारणं जो दु । सो ओ परमाणू परिणाम- गुणो सय-मसद्दो ।।७८ ।। आदेशमात्रमूर्त्तः धातुचतुष्कस्य कारणं यस्तु ।
स ज्ञेयः परमाणुः परिणामगुणः स्वयमशब्दः । ।७८ ।।