Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पंचास्तिकाय प्राभृत
२०९ सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा । अठ्ठगुणा किदकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा'' इति द्वितीयगाथाक्तलक्षणं सिद्धस्वरूपमुक्तमित्यभिप्रायः ॥७३।। इति जीवास्तिकायसंबंधे नवाधिकाराणां चूलिकाव्याख्यानरूपेण गाथात्रयं ज्ञातव्यं ।
एवं पूर्वोक्तप्रकारेण "जीवोत्ति हदि चेदा'' इत्यादि नवाधिकारसूचनार्थ गाथैका, प्रभुत्वमुख्यत्वेन गाथाद्यं, जीवत्वकथनेन गाथात्रयं, स्वदेहप्रमितिरूपेण गाथाद्वयं, अमूर्तत्वगुणज्ञापनार्थ गाथात्रयं, त्रिविधचैतन्यकथनेन गाथाद्वयं, तदनंतरं ज्ञानदर्शनोपयोगद्वयज्ञापनार्थं गाथा एकोनविंशतिः, कर्तृत्वभोक्तृत्वकर्मसंयुक्तत्वत्रयव्याख्यानमुख्यत्वेन गाया अष्टादश, चूलिकारूपेण गाथात्रयमिति सर्वसमुदायेन त्रिपंचाशद्गाथाभिः पंचास्तिकायषद्रव्यप्रतिपादकप्रथममहाधिकारमध्ये जीवास्तिकायनामा 'चतुर्थोंत्तराधिकारः' समाप्तः।
हिन्दी तात्पर्यवृत्ति गाथा ७३ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि मुक्त जीवोंकी ऊपरको गति होती है और संसारी जीवोंकी मरणाकालमें छः दिशाओंभे गति होती है
अन्वयसहित सामान्यार्थ-[पयडिदिदिअणुभागप्पदेसबंधेहिं प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभाग बन्ध और प्रदेशबन्ध इन चार प्रकारके बन्थोंसे [ सव्वदो ] सर्वतरहसे [ मुक्को] छूटा हुआ जीव [ उड्ड] ऊपरको सीधा [ गच्छदि ] जाता है । [ सेसा ] बाकी संसारी जीव [विदिसावज्जं ] चार विदिशाओंको छोड़कर शेष छः दिशाओंमें [ गर्दैि ] गतिमें जानेकी अपेक्षा [ अंति ] जाते हैं।
विशेषार्थ-जब यह जीव समस्त रागादिभावोंसे रहित होकर शुद्धात्यानुभूतिमय ध्यानके बलसे प्रकृति आदि चाररूप द्रव्यकर्म बंधोंसे और सर्व विभाव भावोंसे बिलकुल छूट जाता है तब यह अपने स्वाभाविक अनंतज्ञानादि गुणोंसे भूषित होता हुआ एक समय में ही अविग्रहगतिसे ऊपरको जाकर लोकके अग्रभागमें स्थित हो जाता है । मुक्त जीवोंके सिवाय शेष संसारी जीव मरणके अन्तमें छः दिशाओंमें श्रेणीरूपसे जाते हैं।
उद्धृत गाथार्थ-सिद्ध भगवान आठ कर्मोंसे रहित है इस विशेषण के द्वारा (१) जो जीवको सर्वदा सर्वकर्ममलसे अलिप्त व सदामुक्तरूप ईश्वर मानते हैं ऐसे सदाशिवमतका निराकरण किया गया है (२) यदि कर्मबन्ध न हो तो आत्माको मुक्ति का साधन वृथा हो तथा जीवके मुक्ति न माननेवाले मीमांसक मतका निराकरण किया है (३) सिद्ध भगवान परमशीतल या सुखी भए हैं। इस विशेषणसे जो मुक्तिमें आत्माके सुखका अभाव मानते हैं उन सांख्य मतवालोंका निराकरण है। (४) वे सिद्ध भगवान कभी फिर कर्मरूपी