________________
पंचास्तिकाय प्राभृत हुआ है। इसमें भी दृष्टातं है-जैसे नानादर्पणोंमें देवदत्तके मुखकी उपाधिके वशसे अर्थात् दर्पणोंकी स्वच्छतामें मुख झलकनेसे नानादर्पणोंके पुद्गल ही नानामुखके आकारसे परिणमन कर गए हैं । देवदत्तका मुख अनेक मुखरूप नहीं परिणमन कर गया है। यदि ऐसा हो तो दर्पणमें स्थित मुखका प्रतिबिम्ब चैतन्य भावको प्राप्त होजावे सो ऐसा होता नहीं। इसी तरह एक चंद्रमा भी नानारूपसे नहीं परिणमन करता है तथा ब्रह्म नामका कोई भी एक पदार्थ दिखलाई नहीं पड़ता है जो चन्द्रमाकी तरह नाना प्रकार हो जायगा । इससे यह अभिप्राय है कि एक जीव नाना जीवोंमें नहीं बदल सकता है मात्र जाति अपेक्षा या साधारण गुणकी अपेक्षा सर्व जीय एक प्रकार है तथा यह जीय प्रय-दर्शन सान उपयोगकी अपेक्षा या संसारी और मुक्तकी अपेक्षा या भव्य और अभव्यकी अपेक्षा दो प्रकार है । सोई जीव ज्ञानचेतना, कर्मचेतना या कर्मफलचेतनाको अपेक्षा या उत्पाद व्यय प्रौव्यकी अपेक्षा या सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्रकी अपेक्षा या द्रव्य गुण पर्यायकी अपेक्षा तीन लक्षणधारी है । यद्यपि शुद्ध निश्चयनयसे निर्विकार, चिदानन्दमय एक लक्षण रखनेसे सिद्ध गतिमें रहनेका स्वभाव रखता है तथापि व्यवहारसे मिथ्यादर्शन और रागद्वेषादि भावोंमें परिणमन करता हुआ नरकादि चार गतियोंमें भ्रमण करनेवाला होनेसे चार प्रकार कहा गया है। यद्यपि निश्चयनयसे क्षायिकभाव और शुद्ध पारिणामिकभाव इन दो लक्षणोंको रखता है तथापि सामान्यसे औदयिक आदि पांच मुख्य भावोंका घरनेवाला होनेसे पांच प्रकार है तथा यही जीव छः उपक्रमसे युक्त है इससे छः प्रकार है। इस वाक्यका अर्थ यह है कि जिसमें विरुद्ध क्रम नष्ट हो गया हो उसको उपक्रम कहते हैं अर्थात् यह जीव ऊपर नीचे तथा चार दिशा-पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर इनमें मरणके अन्तम जाता है, जैसा कि कहा है-"अनुश्रेणि गतिः" कि जीवका गमन श्रेणीबद्ध होता है । टेढा विदिशाओंमें नहीं जाता है । इसी कारण छः प्रकार है । यही जीव द्रव्य स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अस्तिनास्ति, स्यात् अवक्तव्य, स्यात् अस्ति अवक्तव्य, स्यात् नास्ति अवक्तव्य, स्यात् अस्तिनास्ति अवक्तव्य इन सात भंगोंसे सिद्ध किया जाता इससे सात प्रकार है । यद्यपि यह जीव निश्चयनयसे वीतराग लक्षणमय सम्यक्त्व आदि आठ गुणोंका आधार है तथापि व्यवहारसे ज्ञानावरणादि आठ कर्मोक आश्रव सहित है इससे आठ प्रकार है । यद्यपि यह जीव निर्विकल्प समाधिमें रहनेवालोंको निश्चयसे एक अखंड ज्ञानरूप प्रतिभासित होता है जो गुण सर्व जीवोंमें साधारण पाया जाता है तथापि व्यवहारसे नाना सुवर्णके पदार्थोमें फैले हुए सुवर्णकी तरह जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य, पाप इन नौ पदार्थोमें व्यापनेसे नौ रूप है । यद्यपि निश्चयनयसे शुद्धबुद्ध एक लक्षणका घारी