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षड्व्य-पंचास्तिकायवर्णन ____ सं० ता०-अथ स्कंधानां व्यवहारेण पुद्गलत्वं व्यवस्थापयति, बादरसुहुमगदाणं खंधाणं पोग्गलोत्ति ववहारो-बादरसूक्ष्मगतानां स्कंधानां पुद्गल इति व्यवहारो भवति । तद्यथा। यथा शुद्धनिश्चयेन सत्ताचैतन्यबोधादिशुद्धप्राणैर्योसो जीवति स किल सिद्धरूपो जीवः व्यवहारेण पुनरायु:प्रभृत्यशुद्धप्राणैर्योसौ जीवांत गुणस्थानमार्गणादिभेदेन भित्र: सोपि जीवः तथा "वर्णगंधरसस्पर्श: पूरणं गलतं च यत् । कुर्वन्ति स्कंधवत्तस्मात्पुद्गला: परमाणवः'' इति श्लोककथितलक्षणा: परमाणवः किल निश्चयेन पुद्गला भयंते। व्यवहारेण पुन_णुकाद्यनंतरपरमाणुपिंडारूपा: बादरसूक्ष्मगतस्कंधा अपि व्यवह्रियंते । ते होंति छप्पयारा-ते भवन्ति षट्प्रकारा: । यैः किं कृतं । णिप्पपण जेहिं तेलोक्कं-यैर्निष्पनं त्रैलोक्यमिति । इदमत्र तात्पर्य लोक्यंते जीवादिपदार्था यत्र स लोक इतिवचनात् पुद्गलादिषद्रव्यैर्निष्पन्नोऽयं लोकः न चान्येन केनापि पुरुषविशेषेण क्रियते ध्रियते वेति ।।७६।।
हिं० ता०-उत्थानिका-आगे कहते हैं कि स्कंधोंमें व्यवहारनयसे पुद्गलपना है
अन्वयसहित सामान्यार्थ-( बादरसहुमगदाणं ) बादर और सूक्ष्म परिणमनको प्राप्त ( खंधाणं) स्कन्धोंको ( पोग्गलोत्ति ) ये पुद्गल है ऐसा ( ववहारो) व्यवहार है । (ते) वे स्कन्ध ( छप्पयारा) छः प्रकारके ( होति) होते हैं ( जेहिं ) जिनसे ( तेलोक्कं ) यह तीन लोक (णिप्पण्णं ) रचा हुआ है ।
विशेषार्थ-शुद्ध निश्चयनयसे सुख सत्ता चैतन्य बोध आदि शुद्ध प्राणोंसे जो जीता है वह वास्तवमें सिद्ध स्वरूप जीव है । व्यवहारसे जो आयु, बल, इंद्रिय, श्वासोच्छवास अशुद्ध प्राणोंसे जीता है तथा जिसके चौदह गुणस्थान व चौदह मार्गणा आदिके भेदसे अनेक भेद है सो भी जीव हैं। वैसे ही निश्चयसे परमाणु ही पुद्गल द्रव्य कहे जाते हैं जैसा कि इस श्लोकमें कहा गया है
जो स्पर्श, रस, गंध वर्णक परिणमन द्वारा पूरण गलन करते रहते हैं अर्थात् जिनमें ये चार गुण अपने अंशोंमें वृद्धि हानि किया करते हैं वे परमाणु स्कन्धोंकी तरह पुदल कहे जाते हैं। व्यवहार नयसे दो परमाणुके स्कंधसे लगाकर अनन्त परमाणुओंके पिंड तक बादर तथा सूक्ष्म अवस्थाको प्राप्त जो स्कन्ध हैं उनको भी पुद्गल हैं ऐसा व्यवहार किया हाता है। वे छः प्रकार हैं जिनसे ही तीन लोककी रचना है । यहाँ यह तात्पर्य है कि जहां जीव आदि पदार्थ दिखलाई पड़ते हैं उसे ही लोक कहते हैं । इस वचनसे पुद्गल आदि छः द्रव्योंसे यह लोक रचा हुआ है और अन्य किसी विशेष पुरुषने न इसे बनाया है, न यह किसीके द्वारा नाश होता है और न यह किसीके द्वारा धारण किया हुआ है । 1७६ ।।