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षद्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन टीका--निश्चयसे जीवको अपने भावोंका कर्तृत्व है और पगलकर्मोका अकर्तृत्व है ऐसा यहाँ आगम द्वारा दर्शाया गया है ।।६१।।
संस्कृत तात्पर्यवृत्ति गाथा ६१ अथैव तदेव व्याख्यानमागमसंवादेन दृढयति, -कुव्वं कुर्वाणः । कं । सगं सहावंस्वकं स्वभावं चिद्रूपं । अत्र यद्यपि शुद्धनिश्चयेन केवलज्ञानादिशुद्धभावाः स्वभावा भण्यंते तथापि कर्मकर्तृत्वप्रस्तावादशुद्धनिश्चयेन रागादयोपि स्वभावा भण्यंते तान् कुर्वन् सन् । अत्ता कत्ता सगस्स भावस्स-आत्मा कर्ता स्वकीयभावस्य । ण हि पोग्गलकम्माणं-नैव पुद्गलकर्मणां हु स्फुटं निश्चयनयेन कर्ता, इदि जिणवयणं मुणेदव्वं इति जिनवचनं मंतव्यं ज्ञातव्यमिति । अत्र यद्यप्यशुद्धभावानां कर्तृत्वं स्थापितं तथापि ते हेयास्तद्विपरीता अनंतसुखादिशुद्धभावा उपादेया इति भावार्थः ।। ६१।। इत्यागमसंवादरूपेण गाथा गता।
हिन्दी तात्पर्यवृत्ति गाथा ६१ उत्थानिका-आगे इसी व्याख्यानको आगमके कथनसे दृढ करते हैं
अन्वय सहित सामान्यार्थ-( अत्ता) आत्मा ( सगं सहावं ) अपने ही स्वभावको ( कुव्यं) करता हुआ ( सगस्स भावस्स) अपने ही भावका (कत्ता) कर्ता होता है ( पुग्गलकम्माणं ण हि ) पुहल कर्मोंका कर्ता नहीं होता है ( इदि ) ऐसा (जिणवयणं) जिनेन्द्रका वचन ( मुणेयव्वं ) मानना योग्य है ।
विशेषार्थ-यद्यपि शुद्ध निश्चयनयसे जीवके स्वभाव केवलज्ञानादि शुद्ध भाव कहे जाते हैं तथापि कर्मके कर्तापनेके व्याख्यानमें अशुद्ध निश्चय नयसे रागादि भी जीवके अपने भाव कहे जाते हैं-इन रागादि भावोंका तो जीवको कर्ता अशुद्ध निश्चयनयसे कह सकते हैं, परन्तु पुद्गलकोका कर्ता जीवको निश्चयनयसे नहीं कहा जा सकता । यह जिनेन्द्रका आगम है। यहाँ यह तात्पर्य है कि यद्यपि यहाँ जीवको अशुद्ध भावोंका कर्ता स्थापित किया है तथापि ये सब अशुद्ध भाव त्यागने योग्य हैं और इनसे विपरीत जो अनंत सुख आदि शुद्धभाव है सो ग्रहण करने योग्य हैं ।।६१।।
इस तरह आगमके कथन रूपसे गाथा कही ।