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पंचास्तिकाय प्राभृत
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होता है ( पुणे ) तथा ( भावकारणं ) रागादि भावोंके कारणसे (कम्पं ) द्रव्य कर्मका बन्ध (हवदि) होता है ( तेसिं ) उन द्रव्य और भाव कर्मोंका ( खलु ) निश्चयसे (कत्ता ण दु ) परस्पर उपादान कर्तापना नहीं है (दु) परन्तु ( कत्तारं विणा ) उपादान कर्ताके बिना ( पण भूदा ) वे नहीं हुए हैं ।
विशेषार्थ - निर्मल चैतन्यमयी ज्योति स्वभावरूप शुद्ध जीवास्तिकायसे प्रतीपक्षी भाव जो मिथ्यात्व व रागादि परिणाम है वह कर्मोंके उदयसे रहित चैतन्यका चमत्कार मात्र जो परमात्म स्वभाव है उससे उल्टे जो उदयमें प्राप्त कर्म है उनके निमित्तको होता है तथा ज्ञानावरण आदि कर्मोंसे रहित जो शुद्धात्मतत्त्व है उससे विलक्षण जो नवीन द्रव्यकर्म है सो निर्विकार शुद्ध आत्माकी अनुभूतिसे विरुद्ध जो रागादि भाव है उनके निमित्तसे बंधते हैं । ऐसा होनेपर भी जीव सम्बन्धी रागादि भावोंका और द्रव्य कर्मोंका परस्पर उपादान कर्तापना नहीं है तो भी वे रागादि भाव और द्रव्यकर्म दोनों बिना उपादान कारणके नहीं हुए हैं किन्तु जीव सम्बन्धी रागादि भावोंका उपादान कर्ता जीव ही है तथा द्रव्य कर्मोंका उपादानकर्ता कर्मवर्गणा योग्य पुद्गल ही है। दूसरे व्याख्यानमें यह तात्पर्य है कि यद्यपि शुद्ध निश्चयनयसे विचार किये जानेपर जीव रागादि भावोंका कर्ता नहीं है तथापि अशुद्ध निश्चयनयसे जांव रागादि भावोंका कता है यह बात सिद्ध है । १६० ||
इस तरह पूर्व गाथामें प्रथम व्याख्यानके द्वारा पूर्व पक्ष किया था यहाँ उसीका उत्तर दिया इस तरह दो गाथाएँ कहीं ।
समय व्याख्या गाथा ६१
कुव्वं सगं सहावं अत्ता कत्ता सगस्स भावस्स ।
ण हि पोग्गल - कम्माणं इदि जिणवयणं मुणेयव्वं । । ६१ । । कुर्वन् स्वकं स्वभावं आत्मा कर्ता स्वकस्य भावस्य ।
न हि पुहलकर्मणामिति जिनवचनं ज्ञातव्यम् ।। ६१ । ।
निश्चयेन जीवस्य स्वभावानां कर्तृत्वं पुद्गलकर्मणामकर्तृत्वं चागमेनोपदर्शितमत्र इति । । ६१ । । हिन्दी समय व्याख्या गाथा ६१
अन्वयार्थ - ( स्वकं स्वभाव ) अपने स्वभावको परिणामको ) ( कुर्वन् ) करता हुआ आत्मा ( हि ) वास्तवमें ( स्वकस्य भावस्य ) अपने भावका ( कर्ता ) कर्ता है, (न पुगलकर्मणां ) पुद्गलकर्मोंका नहीं, ( इति ) ऐसा ( जिनवचनं ) जिनवचन ( ज्ञातव्यम् ) जानना ।