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षद्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन स्वयं उपादान कर्तापना हैं इसकी मुख्यतासे "ओगाढगाढ" इत्यादि पाठक्रमसे तीन गाथाएँ हैं फिर कापना और भोक्तापनाके व्याख्यानके संकोचकी मुख्यतासे 'जीवा पोग्गलकाया' इत्यादि गाथा दो हैं फिर बंधका स्वामीपना और मोक्षका स्वामीपना बताते हुए "एवं कत्ता भोत्ता'' इत्यादि गाथा दो हैं । इस तरह समुदायसे पूर्व पक्षके समाधानमें सात गाथाएं हैं। पहली गाथा कहते हैं कि जैसे यह लोक सूक्ष्म जीवोंसे बिना अन्तरके भरा है ( जो जीव शुद्ध निश्चयनयसे केवलज्ञानादि अनंतगुणोंके धारी है) वैसे यह पुगलोंसे भी भरा है।
अन्वय सहित सामान्यार्थ-(लोगो) यह लोक ( सम्बदो) सब तरफसे ( सुहमेहि) सूक्ष्म ( वादरहिं य) और स्थूल ( विविहेहि ) नाना प्रकारके ( ताणतेहिं ) अनंतानंत ( पोग्गलकायेहिं) पुद्गलके स्कंधोसे ( ओगाढ गाढ णिचितो) पूर्ण रूपसे भरा हुआ है ।
विशेषार्थ-जैसे यह लोक पृथ्वीकाय आदि पांच प्रकारके सूक्ष्म स्थावर जीवोंसे कज्जलसे पूर्ण भी हुई कज्जलदानीकी तरह बिना अन्तरके भरा हुआ है उसी तरह यह लोक अपने सर्व असंख्यात प्रदेशोंमें दृष्टिगोचर नाना प्रकारके अनंतानंत पुद्गल स्कंधोंसे भी भरा है। यहाँ प्रकरणमें जो कर्म वर्गणा योग्य पुद्गलस्कंध है वे वहाँ भी मौजूद हैं जहाँ आत्मा है । वे वहाँ बिना अन्यत्रसे लाए हुए मौजूद हैं। पीछे बंधकालमें और भी वर्गणाएँ आवेंगी। यहाँ यह तात्पर्य है कि यद्यपि वे वर्गणाएँ जहाँ आत्मा है वहाँ-पानीकी तरह कूटकूटकर भरी हुई हैं तथापि वे त्यागने योग्य हैं। उनसे भिन्न जो शुद्ध बुद्ध एक स्वभावरूप परमात्मा है सो ही ग्रहण करने योग्य है ।। ६४।।
समय व्याख्या गाथा ६५ अन्याकृतकर्मसंभूतिप्रकारोक्तिरियम् । अत्ता कुणदि सभावं तत्थ गदा पोग्गला सभावेहि । गच्छंति कम्मभावं अण्णोण्णाव-गाह-मवगाढ़ा ।।६५।।
आत्मा करोति स्वभावं तत्र गताः पुद्गलाः स्वभावैः ।
गच्छन्ति कर्मभावमन्योन्यावगाहावगाढाः ।। ६५।। आत्मा हि संसारावस्थायां पारिणामिकचैतन्यस्वभावमपरित्यजन्नेवानादिगंधनबद्धत्वादनादिमोहरागद्वेषस्निग्थैरविशुद्धैरेव भावविवर्तते । स खलु यत्र यदा मोहरूपं रागरूपं द्वेषरूपं वा स्वस्य भाषमारभते, तत्र तदा तमेव निमित्तीकृत्य जीवप्रदेशेषु परस्परावगाहेनानुप्रविष्टा: स्वभावैरेव पुद्गलाः कर्मभावमापधंत इति ।।६५।।