Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पंचास्तिकाय प्राभृत
हिन्दी समय व्याख्या गाथा ६५
अन्वयार्थ - ( आत्मा ) आत्मा ( स्वभावं ) ( मोहरागद्वेषरूप ) अपने भावको ( करोति ) करता है, (तत्र गता: पुद्गलाः ) ( तब ) वहाँ रहनेवाले पुद्गल ( स्वभावैः ) अपने भावोंसे ( अन्योन्यावगाहावगाढा: ) जीवमें ( विशिष्ट प्रकारसे ) अन्योन्य- अवगाहरूपसे प्रविष्ट हुए ( कर्मभावम् गच्छन्ति ) कर्मभावको प्राप्त होते हैं ।
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टीका - अन्य द्वारा किये गये बिना कर्मकी उत्पत्ति किस प्रकार होती है उसका कथन हैं आत्मा वास्तव में संसार अवस्थामें पारिणामिक चैतन्यस्वभावको छोड़े बिना ही अनादि बंधन द्वारा बद्ध होनेसे अनादि मोहरागद्वेष द्वारा स्निग्ध ऐसे अविशुद्ध भावोंरूपसे ही विवर्तनको प्राप्त होता है ( परिणमित होता है ) । वह ( संसारस्थ आत्मा ) वास्तवमें जहाँ और जब मोहरूप, रागरूप या द्वेषरूप ऐसे अपने भावको करता है, वहाँ और उस समय उसी भावको निमित्त बनाकर पुद्गल अपने भावोंसे ही जीवके प्रदेशों में (विशिष्टत्तापूर्वक ) परस्पर- अवगाहरूपसे प्रविष्ट हुए कर्मभावको प्राप्त होते हैं ॥ ६५ ॥
संस्कृत तात्पर्यवृत्ति गाथा ६५
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अथात्मनो मिथ्यात्वरागादिपरिणामे सति कर्मवर्गणायोग्यपुदूला निश्चयेनोपादानरूपेण स्वयमेव कर्मत्वेन परिणमंतीति प्रतिपादयति, अत्ता आत्मा, कुणदि करोति । कं करोति । सहावं स्वभावं रागद्वेषमोहसहितं परिणामं । ननु रागद्वेषमोहरहितो निर्मलचिज्ज्योतिः सहितश्च वीतरागानंदरूपः स्वभावपरिणामो भण्यते रागादिविभावपरिणामः कथं स्वभावशब्देनोच्यत इति परिहारमाहबंधप्रकरणवशादशुद्धनिश्चयेन रागादिविभावपरिणामोपि स्वभावो भण्यते इति नास्ति दोष: । तत्थ गया— तत्रात्मशरीरावगाढक्षेत्रे गताः स्थिताः । के ते । पोग्गला- कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलस्कंधाः, गच्छंति कम्पभावं- गच्छन्ति परिणमन्ति कर्मभावं द्रव्यकर्मपर्यायं । कैः करणभूतैः । सहावेहिंनिश्चयेन स्वकीयोपादानकारणैः । कथं गच्छन्ति । अण्णोण्णागाहं— अन्योन्यावगाहसंबंधी यथा भवति । कथंभूताः संत: अवगाढा - क्षीरनीरन्यायेन संश्लिष्टा इत्यभिप्रायः ||६५ || हिन्दी तात्पर्यवृत्ति गाथा ६५
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उत्थानिका- आगे कहते हैं कि आत्मामें जब मिथ्यात्व राग-द्वेष आदि परिणाम होते हैं ne उनका निमित्त पाकर कर्मवर्गणायोग्य पुहल निश्चयसे अपने ही उपादान कारणसे स्वयं ही कर्मरूप परिणमन कर जाते हैं ।
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अन्वय सहित सामान्यार्थ - ( अत्ता ) आत्मा ( सहावं ) स्वभाव अपने रागादि भाव ( कर्णादि ) करता है तब ( तत्थगदा) वहाँ प्राप्त ( पोग्गला ) पुगल स्कंध ( सभावेहिं ) अपने ही स्वभावसे ( अण्णोण्णागाहं ) आत्मा और कर्मवर्गणा परस्पर अवगाह रूप