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पंचास्तिकाय प्राभृत
१८९ अन्वय सहित सामान्यार्थ-( कम्मं ) कर्म भी ( सेन सहावेण) अपने स्वभावसे ( सगं) आप ही ( अप्पाणं) अपने द्रव्य कर्मपनेको ( सम्म) भले प्रकार ( कुव्यदि) करता है ( तारिसओ) तैसे ही ( जीवो वि य) यह जीव भी ( कम्मसहावेण भावेण ) रागादि कर्मरूप अपने भावसे अपने भावोंको करता है।
विशेषार्थ-वृत्तिकार कर्ता कर्म आदि छः कारकोंको लगाकर व्याख्यान करते हैं कि यह कार्मण पुद्गल कर्ता होकर कर्मकारकपनेको प्राप्त अपने ही द्रव्य कर्मपनेको अपनी ही कर्म पुद्गलकी सहायता रूप करणकारकसे कर्म पुगलकी अवस्थाके लिये कर्म पुदलों से कर्म पुद्गलके ही आधारमें करता है इस तरह यह पुल अपने ही अभेद छः कारकोंके द्वारा परिणमन करता हुआ अपनी अवस्थाको पलटता है उसको दूसरे द्रव्यके कारककी अपेक्षा नहीं है। इसी तरह जीव भी स्वयकर्ता होकर कपनको प्राप्त अपने आत्मिक भावको अपने ही आत्मारूपी कारणसे अपने ही आत्माके लिए अपने ही आत्मामेंसे अपने ही आत्माके आधारमें करता है अर्थात् आत्मा अपने ही अभेद छः कारकोंके द्वारा परिणमन करता हुआ अपने भावोंको करता है उसे दूसरे किसी कारकको अपेक्षा नहीं है । यहाँ यह तात्पर्य है कि जैसे आत्मा अशुद्ध छ: कारकोंसे परिणमन करता हुआ अपने अशुद्ध आत्मिक भावको करता है तैसे यह शुद्ध आत्माके सम्यक् श्रद्धान, उसीके सम्पज्ञान तथा उसीके आचरण रूपसे अभेद छः कारकोंके स्वभावसे परिणमन करता हुआ शुद्ध आत्मिक भावको करता हैं ।।६।।
इस तरह आगमके कथनसे और अभेद छः कारक रूपसे स्वतंत्र दो गाथाएं पूर्ण हुई। इस तरह समुदायसे छः गाथाओंके द्वारा तीसरा अंतरस्थल पूर्ण हुआ।
समय व्याख्या गाथा ६३ कम्मं कम्मं कुव्वदि जदि सो अप्पा करेदि अप्पाणं । किध तस्स फलं भुञ्जदि-अप्पा कम्मं च देदि फलं ।।६३।।
कर्म कर्म करोति यदि स आत्मा करोत्यात्मानम् ।
कथं तस्य फलं भुङ्क्ते आत्मा कर्म च ददाति फलम् ।। ६३।। कर्मजीवयोरन्योन्याकर्तृत्वेऽन्यदत्तफलान्योपभोगलक्षणदूषणपुरःसरः पूर्वपक्षोऽयम् ।।६३।।