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पंचास्तिकाय प्राभृत
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[ खओवसमियं ] क्षायोपशमिक भाव [ण विज्झदे ] नहीं होता है [ तम्हा ] क्योंकि [ भावं तु कम्पकदं ] ये सब भाव कर्मकृत हैं ।
विशेषार्थ- शुद्ध ज्ञान दर्शन लक्षणधारी और भावकर्म, द्रव्य कर्म तथा नोकर्मसे विलक्षण परमात्मासे विपरीत जो उदयमें प्राप्त द्रव्यकर्म हैं उनके बिना जीवके रागादि परिणामरूप औदयिक भाव नहीं हो सकता है। केवल औदयिक ही नहीं औपशमिक भाव भी द्रव्यकर्मके उपशम बिना नहीं होता है। इसी तरह क्षायोपशमिक भाव द्रव्यकर्मोके क्षयोपशम बिना और क्षायिक भाव द्रव्यकर्मोके क्षय बिना नहीं होता है इसलिये ये सब भाव कर्मकृत हैं, क्योंकि शुद्ध पारिणामिक भावोंको छोड़कर पूर्वमें कहते हुए औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक तथा क्षायिक ये चार भाव द्रव्यकर्मके बिना नहीं होते हैं इसीलिये यह जाना जाता है कि ये आंदयिक आदि चारों भाव अनुपचारित असद्भूत व्यवहारनयसे द्रव्यकर्म कृत हैं । यहाँ यह तात्पर्य है कि इस सूत्रमें सामान्यसे केवलज्ञानादि क्षायिक नवलब्धि रूप जो क्षायिक भाव है तथा विशेष करके जो केवलज्ञानमें गर्भित निराकुलता लक्षण निश्चय सुख है उसको आदि लेकर जो अनन्तगुणोंका आधार है वही 1. क्षायिक भाव सब तरहसे ग्रहण करने योग्य है ऐसा मन द्वारा श्रद्धान करना व जानना चाहिये तथा मिथ्यात्व व रागादि विकल्पज्ञाल त्याग करके उसी क्षायिक भावका निरन्तर ध्यान करना चाहिये ।
इस तरह इन्ही चार भावोंका अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नयसे कर्म कर्ता है इस व्याख्यानकी मुख्यतासे गाथा कही । इस तरह अशुद्ध निश्चय नयसे रागादि भावोंका कर्त्ता जीव है ऐसा पूर्व गाथामें कहा था । यहाँ बताया कि व्यवहारसे इनका कर्ता कर्म है इस तरह दो स्वतंत्र गाथाएँ कहीं ।
समय व्याख्या गाथा ५९
जीवभावस्य कर्मकर्तृत्वे पूर्वपक्षोऽयम् ।
भावो जदि कम्म-कदो अत्ता कम्मस्स होदि किध कत्ता ।
ण कुणदि अत्ता किंचि वि मुत्ता अण्णं सग भावं । । ५९ ।। भावो यदि कर्मकृत आत्मा कर्मणो भवति कथं कर्ता ।
न करोत्यात्मा किंचिदपि मुक्त्वान्यत् स्वकं भावम् ।।५९ ।।
यदि खल्वौदयिकादिरूपो जीवस्य भावः कर्मणा क्रियते, तदा जीवस्तस्य कर्ता न