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षद्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
हिन्दी तात्पर्यवृत्ति गाथा ५५ उत्थानिका-आगे पूर्व सूत्रमें जो जीवके भिन्न भिन्न पर्याय धारनेकी अपेक्षा उत्पाद व्यय कहा है उस पर्याय धारणका कारण नर नारक आदि गतिनामा नामकर्मका उदय है ऐसा कहते हैं
अन्वयसहित सामान्यार्थ-(णेरइयतिरियमणुआ देवा इदि ) नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव ये ( पामसंजुदा पयडी) गति नाम कर्मकी प्रकृतियाँ हैं सो ( सदो भावस्स ) विद्यमान पर्यायका ( णासं ) नाश और ( असदो उप्पादं ) अविद्यमान पर्यायका जन्म ( कुळति ) करती है।
. विशेषार्थ-जैसे समुद्र समुद्ररूपसे अविनाशी है तो भी उसकी तरंगों में उपजना विनशना हुआ करता है तैसे. यह जीव स्वाभाविक आनंदमय एक टंकोत्कीर्ण ( टांकीसे पत्थरमें उकेरी मूर्तिके समान ) ज्ञाता द्रष्टा स्वभावसे नित्य है तो भी व्यवहारनयसे अनादिकालके प्रवाह रूप कर्मोके उदयके वशसे निर्विकार शुद्धात्माकी प्राप्तिसे हटा हुआ नरकगति आदि कर्मों के उदयसे एक गति को छोड़कर दूसरी गतिमें जन्मता रहता है। यह पर्यायके पलटनेकी अपेक्षा कहा है वास्तवमें द्रव्यमें सदृश या विसदृश पर्यायें सदा ही होती रहती हैं, जैसा कि कहा है
अर्थात् अनादिसे अनन्तकाल तक बने रहनेवाले द्रव्यमें अपनी पर्यायें प्रति समय प्रगट होती रहती और नष्ट होती रहती हैं जैसे समुद्र में जलकी तरंगे उठती और बैठती रहती हैं। यहाँ तात्पर्य है कि जो कोई शुद्ध निश्चयनयसे मूल और उत्तर प्रकृतियोंसे रहित वीतराग परम आनन्दमय एक रूप चैतन्यके प्रकाश को रखनेवाला है वहीं शुद्ध जीवास्तिकाय ग्रहण करने योग्य है ।। ५५।।
इस तरह कर्मका कर्तापना आदि तीन बातोंकी पीठिकाके व्याख्यानकी अपेक्षा तीन गाथासे पहला अन्तरस्थल पूर्ण हुआ।
समय व्याख्या गाथा ५६ जीवस्य भावोदयवर्णनमेतत् - उदयेण उवसमेण य खयेण दुहिं मिस्सि-देहिं परिणामे । जुत्ता ते जीवगुणा बहुसु य अत्थेसु वित्थिण्णा ।।५६।।