Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षड्द्रव्य--पंचास्तिकायवर्णन गाथा ३ परस्परसापेक्षत्वादिति । अत्र यद्यपि पर्यायार्थिकनयेन सादिसनिधनं जीवद्रव्यं व्यारठ्यातं तथापि शुद्धनिश्चयेन यदेवानादिनिधनं टंकोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावं निर्विकारसदानंद कस्वरूपं च तदेवोपादेयमित्यभिप्रायः ।।५४||
हिन्दी तात्पर्यवृत्ति गाथा ५४ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि यद्यपि पर्यायार्थिकनयसे नाश और जन्म होते हैं तथापि द्रव्यार्थिक नयसे नहीं होते हैं। ऐसा कहने में कोई पूर्वापर विरोध नहीं है ।
अन्वयसहित सामान्यार्थ-( एवं ) ऊपर कहे प्रमाण पर्यायकी अपेक्षासे ( जीवस्स ) जीवके (स्मो विमल परिडिमारोगास व ( असदो) अविद्यमान पर्यायका ( उप्पदो) जन्म होता है (इति) ऐसा ( जिणवरेहिं ) जिनेन्द्रोंने ( भणिदं) कहा है ( अण्णोण्णविरुद्धं ) यह बात परस्पर विरोधरूप है तथापि ( अविरुद्धं) विरुद्ध नहीं है ।
विशेषार्थ-पूर्व गाथामें जैसा कहा है उस तरह औदयिक भावकी अपेक्षासे आयुके नाशसे मनुष्य पर्याय जो अब विधमान है उसका नाश होता है तथा गति नामकर्मके उदयसे अविद्यमान देवादि पर्यायका जन्म होता है यह बात सर्वज्ञ भगवानने कही है। पहले द्रव्यके वर्णनकी पीठिकामें सत् रूप विद्यमान जीवका नाश तथा असत् रूप अविद्यमान जीव द्रव्य का जन्म नहीं होता है ऐसा कहा था, यहाँ कहा है कि सत् रूप जीवका नाश होता है और असत् रूप जीवका उत्पाद होता है इसलिये विरोध आ जायगा सो आचार्य कहते हैं कि विरोध नहीं आयेगा क्योंकि वहाँ द्रव्यकी पीठिकामें द्रव्यार्थिक नयसे उत्पाद और व्ययका निषेध किया गया है, यहाँ पर्यायार्थिक नयसे उत्पाद व्यय होते हैं ऐसा कहा है इसम कोई विरोध नहीं है। क्योंकि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय परस्पर अपेक्षावान हैं। यहाँ यह अभिप्राय है कि यद्यपि पर्यायार्थिक नयसे किसी पर्यायको अपेक्षा जीव द्रव्य सादि सान्त कहा गया है तथापि शुद्ध निश्चयनयसे जो अनादि अनन्त एक टंकोत्कीर्ण ज्ञाता मात्र एक स्वभावधारी व निर्विकार सदा आनन्दस्वरूप जीव द्रव्य है वही ग्रहणकरने योग्य है ।। ५४।।
समय व्याख्या गाथा ५५ जीवस्य सदसद्भावोच्छित्युत्पत्तिनिमित्तोपाधिप्रतिपादनमेतत् -
णेरइय-तिरिय-मणुआ देवा इदि णाम-संजुदा पयडी । कुव्वंति सदो णासं असदो भावस्स उप्पादं ।। ५५।।