Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षड्द्रव्य - पंचास्तिकायवर्णन गाथा ३
अपेक्षा ( अणाइणिहणा ) अनादि अनंत हैं ( सांता ) सांत है ( ांता य) और अनंत है ( पंचग्गगुणप्पधाणा य ) इस तरह पांच मुखगुणधारी हैं तथा (दो) सत्तापकी अपेक्षा ( अणंता ) अनंत हैं ।
विशेषार्थ - ये जीव शुद्ध पारिणामिक परमभावको ग्रहण करनेवाली शुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे शुद्ध चैतन्यरूप हैं इससे अनादि अनंत है अर्थात् पारिणामिक भाव सदा बना रहता है, और औदयिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक इन तीन भावोंकी अपेक्षा सादि सांत हैं। अर्थात् ये तीन भाव कर्मोंके उदय, उपशम, या क्षयोपशमके द्वारा होते हैं और नष्ट होते हैं तथा क्षायिक भावोंकी अपेक्षा सादि अनंत हैं । क्षायिक भावोंको सादिसांत न मानना चाहिये क्योंकि वे भाव कर्मोंके क्षयसे केवलज्ञानादि रूपसे उत्पन्न होकर सदा बने रहते हैं । वे भाव सिद्ध जीवके समान जीवके स्वाभाविक भाव है और स्वभावका कभी नाश नहीं होता है । यद्यपि ये जीव स्वभावसे शुद्ध हैं तथापि व्यवहारनयसे अनादिकालसे कर्मबंध होनके कारण कर्दम सहित जलकी तरह औदयिक आदि भावोंमें परिणमन करते हुए देखे जाते हैं इस तरह स्वरूपका व्याख्यान किया गया। अब संख्याको कहते हैं कि ये जीव द्रव्य स्वभावकी गणनासे अनंत हैं अर्थात् इनकी संख्या अक्षय अनंत है। सांत अनंत शब्दका दूसरा व्याख्यान करते हैं- जिनका अन्त हो अर्थात् जिनके संसारका अन्त हो सके वे जीव सांत अर्थात् भव्य हैं, वह जिनके संसारका अन्त न हो सके वे जीव अनंत अर्थात् अभव्य हैं। ये अभव्य जीव अनंत हैं इनमें भी अनंतगुणे भव्य हैं, इन भव्योंसे भी अनंतगुणे अभव्य समान भव्य हैं जिनका भी संसार अन्त होनेका अवसर नहीं आयेगा - इस सूत्रका यह तात्पर्य है कि जो भव्य जीव सादि सांत मिथ्यात्व रागादि दोषके त्यागमें परिणमन करनेवाले हैं उनको अनादि अनंत अनंतज्ञानादि गुणके धारी शुद्ध जीव ही गुण करने योग्य हैं ।। ५३ ।।
समय व्याख्या गाथा ५४
जीवस्य भावशात्सादिसनिधनत्वे साद्यनिधनत्वे च विरोधपरिहारोऽयम् ।
एवं सदो विणासो असदो जीवस्स होइ उप्पादो ।
इदि जिणवरेहिं भणिदं अण्णोण्ण-विरुद्ध-मविरुद्धं । । ५४ ।। एवं सतो विनाशोऽसतो जीवस्य भवत्युत्पादः ।
इति जिनवरैर्भणितमन्योऽन्यविरुद्धमविरुद्धम् ।। ५४ । ।