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षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन मनोवचनकायव्यापाररूपकर्मकांडपरिणतेन च पूर्व यदुपार्जितं ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म तदुदयागतं व्यवहारेण वेदयमानः । कोसौ । जीवो-जीवः कर्ता । भावं करेदि जारिसर्य-भावं परिणामं करोति याध्शकं । सो तस्स तेण कत्ता-स: तस्य तेन कर्ता स जीवस्तस्य रागादिपरिणामस्य कर्मतापत्रस्य तनैव भावेन करणभूतेनाशुद्धनिश्चयन कर्ता, हवदित्तिय सासण पांढद-भवताति शासने परमागर्म पठितमित्यभिप्रायः इति ।।५७|| जीवो निश्चयेन कर्मजनितरागादिविभावनां स्वशुद्धात्मभावनाच्युतः सन कर्ता भोक्ता च भवतीति व्याख्यानमुख्यत्वेन गाथा गता ।
हिन्दी तात्पर्यवृत्ति गाथा ५७ __ अब तीसरा स्थल कहते हैं । अथानंतर इस स्थलकी प्रथम गाथामें यह कहा जाता है कि निश्चयसे यह जीव ही रागादि भावोंका कर्ता है । दूसरी गाथा में यह है कि उदय प्राप्त द्रव्य कर्म व्यवहारसे रागादि भावोंको करते हैं इस तरह दो स्वतंत्र गाथाएं हैं । फिर प्रथम गाथामें यह कहा है कि यदि एकांतसे उदयप्राप्त द्रव्य कर्म ही रागादि विभावोंको करनेवाले हों तो जीव सर्व प्रकारसे अकर्ता हो जावेगा। दूसरी गाथामें इस दोषका खंडन है। इस तरह पूर्व पक्ष और उसके समाधानकी मुख्यतासे गाथाएं दो हैं। फिर प्रथम गाथामें आगमका यह कथन दिखाया है कि निश्चयसे जीव पुद्गल कर्मोका कर्ता नहीं है तथा दूसरीमें जीव और कर्म दोनोंमें अभेद षट्कारकको व्यवस्था बताई है इस तरह दो स्वतंत्र गाथाएं हैं ऐसे तीसरे स्थलमें कर्तापनेकी मुख्यतासे समुदायरूप छ: गाथाएं कही
उत्थानिका-आगे इस प्रश्नके होनेपर कि औदयिक आदि भावोंको जीव किस रूपसे करता है ? आचार्य उत्तर देते हैं
अन्वय सहित सामान्यार्थ-(कर्म) कर्मोको ( वेदयमाणो) भोगता हुआ { जीवो) यह जीव ( जारिसयं ) जिस तरहका ( भावं) भाव [ करेदि ] करता है [सो ] वह जीव [तेण ] उसी कारणसे [ तस्स ] उसी भावका [कर्ता] कर्ता ( हवदित्ति य) होता है ऐसा [ सासने ] जिनशासनमें ( पढिदं ) व्याख्यान किया गया है !
विशेषार्थ-वीतराग परमानंदमय प्रचंड और अखंड ज्ञानकाण्डमें रमण करनेवाला आत्माकी भावनाको न पाकर अपने मन वचन कायके व्यापाररूप कर्मकांडमें परिणमन करके जो इस जीवने पूर्व कालमें ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म बांध लिये हैं उनहीं के उदयमें आनेपर उनको भोगता हुआ यह जीव जैसा रागादि परिणाम करता है उसी भावका यह जीव अशुद्ध निश्चय नयसे उसी अशुद्ध भावके द्वारा कर्ता होजाता है ऐसा परमागममें कथन है ।।५७।।