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पंचास्तिकाय प्राभृत
१६७ पुद्गल द्रव्यसे अभिन्न है तो भी ( अण्णत्तपगासगा ) व्यवहारसे संज्ञादिकी अपेक्षा भेदपनेके प्रकाशक ( होति ) हैं ( तहा) तैसे ( जीवणिबद्धाणि) जीवसे तादात्म्य सम्बन्ध रखनेवाले ( दंसणणाणाणि ) दर्शन और ज्ञान गुण ( णण्णभूदाणि ) जीवसे अभिन्न हैं सो ( ववदेसदो) संज्ञा आदिसे ( पुधत्तं ) परस्पर भिन्नपना ( कुव्यंति ) करते हैं । (हि) निश्चयसे ( सभावादो ण) स्वभावसे पृथकपना नहीं करते हैं।
विशेषार्थ-प्रदेशोंकी अपेक्षा जैसे पुद्गल परमाणुसे उसके स्पर्शादि गुण अभिन्न है वैसे जीवसे उसके ज्ञानदर्शनादि गुण अभिन्न है संज्ञा आदिकी अपेक्षा जैसे परमाणुका स्पर्श, रस, गंध वर्णसे भेद है वैसे जीवका अपने ज्ञान दर्शन गुणसे भेद है ।
__ यहाँ यह तात्पर्य है कि इस अधिकारमें यद्यपि आठ प्रकार ज्ञानोपयोग और चार प्रकार दर्शनोपयोगके व्याख्यानके कालमें शुद्ध तथा अशुद्धकी अपेक्षा नहीं की थी तथापि निश्चयनयसे आदि मध्य अन्तसे रहित परमानंदमयी परमचैतन्यवान भगवान आत्मामें जो निराकुलता लक्षण पारमार्थिक सुख है उस ग्रहण करने योग्य सुखका उपादान कारण जो केवलदर्शन और केवलज्ञान दो उपयोग है वे ही ग्रहण करने योग्य हैं ऐसा श्रद्धान तथा ज्ञान करना चाहिये । तथा उन्हीको ही आर्त, रौद्र आदि सर्व विकल्पजाल त्यागकरके ध्याना योग्य है ।। ५१-५२।।
इसतरह दृष्टांत और दाति रूपसे दो गाथाएँ कहीं। यहाँ पहले 'उवओगो दुवियप्यो' इत्यादि पूर्व कहे प्रमाण पाठके क्रमसे दर्शन ज्ञानको कहते हुए स्थल पांचसे नव गाथाएं कहीं, फिर 'ण वियप्पदिणाणादो' इत्यादि पाठ क्रमसे नैयायिकके लिये गुण और गुणीका भेद हटाते हुए चार अंतर स्थलोंसे दस गाथाएं कहीं । इस तरह समुदाय रूप उगनीस गाथाओंके द्वारा जीवाधिकारके व्याख्यान रूप नव अधिकारोंमें छठा उपयोग अधिकार समाप्त हुआ।
समय व्याख्या गाथा ५३ जीवा अणाइ-णिहणा संता णता य जीव-भावादो । सब्भावदो अणंता पंचग्ग-गुणप्पधाणा य ।। ५३।।
जीवा अनादिनिधनाः सांता अनंताश्च जीवभावात् ।।
सद्भावतोऽनंताः पञ्चाग्रगुणप्रधानाः च ।। ५३।। जीवा हि निश्चयेन परभावानामकरणात्स्वभावानां कर्तारो भविष्यन्ति । तांश्च कुर्वाणा: