Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पंचास्तिकाय प्राभृत
७७ चाभावं व्ययं करोति येन कारणेन जीवस्तस्मात् तत्रैव शुद्धात्मद्रव्ये सम्यक् श्रद्धानं ज्ञानं तथानुचरणं च निरन्तरं सर्वतात्पर्येण कर्तव्यमिति भावार्थः ।।२१।। एवं द्रव्यार्थिकनयेन नित्यत्वेपि पर्यायार्थिकनयेन संसारिजीवस्य देवमनुष्याधुत्पादव्ययकर्तृत्वव्याख्यानोपसंहारमुख्यत्वेन चतुर्थस्थले गाथा गता। इति स्थलचतुष्टयेन द्वितीयं सप्तकं गतं । एवं प्रथमगाथास्पतके यदुक्तं स्थलपञ्चकं तेन रह जयभित्तास्वनेशलाथाभिः ममहाधिकारमध्ये द्रव्यपीठिकाभिधाने द्वितीयोऽन्तराधिकार: समाप्तः।
हिन्दी तात्पर्य वृत्ति गाथा-२१ उत्थानिका-आगे यह प्रकाश करते हैं कि यह जीव अपने भीतर विद्यमान पर्यायके नाश तथा अविद्यमान पर्यायके उत्पादका कर्ता है तथा इस व्याख्यानको संकोचते भी हैं
अन्वयसहित सामान्यार्थ-( एवं ) इसी तरह ( गुणपज्जयेहि सहिदो जीवो) अपने गुण और पर्यायके साथमें रहता हुआ यह जीव ( संसरमाणो) संसारमें भ्रमण करता हुआ ( भावं ) उत्पाद, और ( अभावं) नाशको ( भावाभावं) विद्यमान पर्यायके अभावके प्रारम्भको ( अभावभावं) अविद्यमान पर्यायके सद्भावके प्रारम्भको ( कुणदि) करता रहता है।
विशेषार्थ-जैसा यहले कह चुके हैं कि यह जीव द्रव्यार्थिक नयसे नित्य है तो भी पर्यायार्थिक नयसे पहले की विद्यमान मनुष्य पर्यायका नाश करता है फिर देवगतिमें उत्पत्तिके समयमें देव पर्यायका उत्पाद करता है फिर भी देवपर्यायके छूटनेके कालमें विद्यमान देवपर्यायका नाश प्रारम्भ करता है तथा मनुष्य पर्यायकी उत्पत्तिके कालमें अविद्यमान मनुष्य पायकी उत्पत्तिको प्रारम्भ करता है। जो ऐसा करता है वह जीव कुमति ज्ञानादि विभाव गुण नर नारकादि विभाव पर्याय सहित होता है। जो जीव केवलज्ञानादि स्वभाविक गुण और सिद्धमय शुद्ध पर्याय सहित होता है वह इस तरह गतियोंमें भ्रमण नहीं करता है, क्योंकि केवलज्ञानादिके प्रकाशको अवस्था होते हुए नरनारक आदि विभाव पर्यायोंकी उत्पत्ति असंभव है किंतु शुद्ध सिद्ध पर्यायमें भी यह जीव अगुरुलघु गुणके द्वारा षट्-गुणी हानिवृद्धि रूप स्वभावपर्यायकी अपेक्षा उत्पाद व नाश आदि करता रहता है । इसमें कोई विरोध नहीं है । जब अशुद्ध होता है तब जीव द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावरूप पंच प्रकार संसारमें भ्रमण करता रहता है। इस सूत्रमें यह दिखाया है कि जब यह जीव साक्षात् ग्रहण करने योग्य विशुद्ध ज्ञान, दर्शन स्वभाव रूप शुद्ध जीवास्तिकायका सम्यक् श्रद्धान ज्ञान और चारित्ररूप निश्चय रत्नत्रयमय परम सामायिकको