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पंचास्तिकाय प्राभृत भोक्तृत्वका विनाश है, और यही, अनादि विवर्तनके खेदके विनाशसे जिसका अनंत चैतन्य सुस्थित हुआ है ऐसे आत्माको स्वतंत्रस्वरूपानुभूतिलक्षण सुखका भोक्तृत्व है ।।२८॥
संस्कृत तात्पर्यवृत्ति गाथा-२८ अथ मोक्षसाधकत्वप्रभुत्वगुणद्वारेण सर्वज्ञसिद्धयर्थं मुक्तावस्थस्यात्मनः केवलज्ञानादिरूपं निरूपाधिस्वरूपं दर्शयति:. कम्ममलविप्पमुक्को-द्रव्यकर्मभावकर्मविप्रमुक्तः सन् उड्डूं लोगस्स अंतमधिगंता-ऊर्ध्वगतिस्वभावत्वाल्लोकस्यांतमधिगम्य प्राप्य, सो सव्वणाणदरिसी-परतो धर्मास्तिकायाभावात्तत्रैव लोकाग्रे स्थितः सन् , सर्वविषये ज्ञानदर्शने सर्वज्ञानदर्शने ते विद्येते यस्य स भवति सर्वज्ञानदर्शी। एवंभूतः सन् किंकरोति ? 'लहइ सुहमणिदियमणंत' लभते । किं ? सुखं । कथंभूतं ? अतीन्द्रियं । पुनरपि कथंभूतं ? अनंतमिति । किंच विशेष—-पूर्वसूत्रोदितजीवतत्त्वादिनवाधिकारेषु मध्ये कर्मसंयुक्तत्वं विहाय शुद्धजीवत्वशुद्धचेतनाशुद्धोपयोगादयोऽष्टाधिकारा यथासंभवमागमाविरोधेनात्र मुक्तावस्थायामपि योजनीया इति सूत्राभिप्राय: ।।२८।।
हिन्दी तात्पर्यवृत्ति गाथा- २८ उत्थानिका-आगे मोक्षका साधकपना व प्रभुत्व गुणके द्वारा सर्वज्ञकी सिद्धिके लिये मुक्त आत्माका केवलज्ञानादि रूप उपाधिरहित स्वभाव है ऐसा दिखलाते हैं____ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(सो) सो संसारी जीव ( कम्ममलविप्पमुक्को) कर्मों के मलसे मुक्त होकर (सवणाणदरिसी) सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होता हुआ ( उहुं) ऊपर जाकर व ( लोगस्स अंतं) लोकाकाशके अंतमें ( अधिगंता ) प्राप्त होकर ( अणिंदियं) इन्द्रिय रहित ( सुहं) सुखको ( लहदि ) प्राप्त करता या अनुभव करता रहता है ।
विशेषार्थ-यह जीव ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म व रागद्वेषादि भाव कर्म व शरीरादि नो कर्म इन तीन प्रकार कर्मोंसे बिलकुल छूटकर केवलज्ञान और केवलज्ञानदर्शनसे सर्वज्ञ और सकलदर्शी होता हुआ अपने ऊर्ध्वगमन स्वभावसे ऊपर जाकर लोकाकाशके अंतमें ठहर जाता है-आगे थर्मास्तिकायके न होनेसे नहीं जाता है। वहाँ सिद्धक्षेत्र में ठहरा हुआ क्या करता है ? उसका समाधान करते हैं कि वह सिद्धात्मा अतीन्द्रिय अनंत स्वाभाविक आनन्दको भोगा करता है। इस सूत्रका अभिप्राय यह है कि पूर्व सूत्रमें कहे प्रमाण नौ अधिकारोंमेंसे कर्मसंयुक्त छोड़कर शुद्ध जीवपना, शुद्ध चेतनपना, शुद्ध उपयोगपना आदि आठ अधिकार यथासम्भव आगम में विरोथ न लाते हुए मुक्तावस्थामें भी जान लेने चाहिये।