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पंचास्तिकाय प्राभृत
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यहाँ शिष्यने प्रश्न किया कि पहले जीवास्तिकायकी समुदाय पातनिकामें चार्वाक आदि के अभिप्रायसं व्याख्यान किया था फिर यहाँ क्यों कहा गया ऐसा पूर्वपक्ष होनेपर आचार्य समाधान करते हैं कि पहले तो इस व्याख्यानके क्रमको बतानेके लिये प्रभुता आदि अधिकारकी मुख्यतासे नव अधिकार सूचित किये गये कि वीतराग सर्वज्ञकी सिद्ध होनेपर ही व्याख्यान में प्रमाणपना प्राप्त होता है, क्योंकि कहा है- 'वक्तृप्रामाण्याद्वचनप्रामाण्यमिति' । भावार्थ- वक्ताकी प्रमाणतासे उसके वच्चनकी प्रमाणता होती है। यहाँ फिर इसलिये कहा है कि धर्मोपदार्थको सत्ता होने पर ही उसके धर्म या स्वभावोंका विचार किया जाता है यह आगमका वचन है, इसलिये चेतनागुण आदि विशेष धर्मका आधारभूत विशेष लक्षणरूप जीवरूप धर्मीकी सिद्धि होनेपर उन चेतना गुण आदि विशेष धर्मोका व्याख्यान घट सकता है । इसीको बतानेके लिये जीवकी सिद्धिपूर्वक अन्यमतोंका निराकरण करते हुए नव अधिकरोंका उपदेश किया गया है। इसमें कोई दोष नहीं है ।। २७ ।।
इस प्रकार अधिकारकी गाथा पूर्ण हुई ।
समय व्याख्या गाथा - २८
अत्र मुक्तवस्थास्यात्मनो निरुपाधिस्वरूपमुक्तम् ।
कम्म- मल- विप्प मुक्को उड्डुं लोगस्स अंत-मधिगंता । सो सव्व णाण-दरिसी लहदि सुह- मणिंदिय - मणंतं ।। २८ ।। कर्ममलविप्रमुक्त ऊर्ध्वं लोकस्यान्तमधिगम्य ।
स सर्वज्ञानदर्शी लभते सुखमनिन्द्रियमनंतम् ।। २८ । ।
आत्मा हि परद्रव्यत्वात्कर्मरजसा साकल्येन यस्मिन्नेव क्षणे मुच्यते तस्मिन्नेवोर्ध्वगमनस्वभावत्वाल्लोकांतमधिगम्य परतो गतिहेतोरभावादवस्थितः केवलज्ञानदर्शनाभ्यां स्वरूपभूतत्वादमुक्तोऽनंतमतीन्द्रियं सुखमनुभवति । मुक्तस्य चास्य भावप्राणधारणलक्षणं जीवत्वं चिद्रूपलक्षणं चेतयितृत्वं चित्परिणामलक्षणं उपयोगः, निर्वर्तितसमस्ताधिकारशक्तिमात्रं प्रभुत्वं समस्तवस्त्वसाधारणस्वरूपनिर्वर्तनमात्रं कर्तृत्वं, स्वरूप भूतस्वातन्त्र्यलक्षणसुखोपलम्भरूपं भोक्तृत्वं, अतीतानंतरशरीरपरिमाणावगाहपरिणामरूपं देहमात्रत्वं, उपाधिकसंबंधविविक्तमात्यन्तिकममूर्तत्वम् । कर्मसंयुक्तत्वं तु द्रव्यभावकर्मविप्रमोक्षान्न भवत्येव । द्रव्यकर्माणि हि पुद्गलस्कंधा भावकर्माणि तु चिद्विवर्ताः । विवर्तते हि चिच्छक्तिरनादिज्ञानावरणादिकर्मसंपर्ककूणितप्रचारा परिच्छेद्यस्य विश्वस्यैकदेशेषु व्याप्रियमाणा । यदा तु ज्ञानावरणादिकर्मसंपर्क: प्रणश्यति तदा
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