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पंचास्तिकाय प्राभृत
१४१ हाति पमादा हु पण्णरस'' इत्यादि गाथोक्तपंचदशप्रमादरहितस्याप्रमत्तमुनेरिति । अत्रोत्पत्तिकाल एवाप्रमत्तनियम: पश्चात्प्रमत्तस्यापि संभवतीति भावार्थः ।।४।।
हिन्दी तात्पर्यवृत्ति गाथा-४ उत्थानिका-आगे मनःपर्ययज्ञानको करते हैं
अन्वयसहित सामान्यार्थ-[ पुण] फिर ( अज्जवणाणं) ऋजुपतिज्ञान (च) और ( विउलमदी णाणं) विपुलमतिज्ञान ( दुविहं) यह दो प्रकारका [ मणणाणं ] मनःपर्ययज्ञान होता है [ एदे ] ये दोनों [ अप्पमत्तस्स ] अप्रमत्त मुनिके ( उवओगे) उपयोगमें [ संजमलद्धी ] संयमके द्वारा प्राप्त होते हैं।
विशंषार्थ-यह आत्मा मनःपर्यय ज्ञानावरणीयके क्षयोपशम होनेपर दूसरेके मन में प्राप्त मूर्तवस्तुको जिसके द्वारा प्रत्यक्ष जानता है वह मनःपर्यय ज्ञान है। उसके दो भेद हैंऋजुमति और विपुलमति । इनमें विपुलमति मनःपर्ययज्ञान दूसरेके मनमें प्राप्त पदार्थको सीधा व वक्र दोनोंको जानता है जब कि ऋजुमति मात्र सीधेको ही जानता है । इनमेंसे विपुलमति उन चरमशरीरी मुनियोंके ही होता है जो निर्विकार आत्मानुभूतिकी भावनाको रखनेवाले हैं। तथा ये दोनों ही उपेक्षा संयमकी दशामें संयमियोंको ही होते हैं और केवल उन मुनियोंको ही होते हैं जो वीतराग आत्मतत्त्वके सम्यश्रद्धान, ज्ञान व चारित्रकी भावना सहित, पन्द्रह प्रमाद रहित अप्रमत्त गुणस्थानके विशुद्ध परिणाममें वर्त रहे हों। जब यह उत्पन्न होता है तब अप्रमत्त सातवें गुणस्थानमें ही होता है यह नियम है । फिर प्रमत्तके भी बना रहता है, यह तात्पर्य है ।।४।।
संस्कृत तात्पर्यवृत्ति गाथा-५ णाणं णेय-णिमित्तं केवल-गाणं ण होदि सुद-णाणं ।
णेयं केवल-णाणं णाणा-णाणं च णत्थि केवलिणो ।।५।। केवलाणाणं णाणं णेयणिमित्तं ण होदि-केवलज्ञानं यज्ज्ञानं तद्घटपटादिज्ञेयार्थमाश्रित्य नोत्पद्यते । तर्हि श्रुतज्ञानस्वरूपं भविष्यति । ण होदि सुदणाणं- यथा केवलज्ञानं ज्ञेयनिमित्त न भवति तथा श्रुतज्ञानस्वरूपमपि न भवति । णेय केवलणाणं- एवं पूर्वोक्तप्रकारण ज्ञेयं ज्ञातव्यं केवलज्ञानं । अयमत्रार्थः । यद्यपि दिव्यध्वनिकाले तदाधारेण गणधरदेवादीनां श्रुतज्ञानं परिणमति तथापि तत् श्रुतज्ञानं गणधरदेवादीनामेव न च केवलिना, केवलिना केवलज्ञानमेव-णाणाणाणं च णत्थि केवलिणो-न केवलं श्रुतज्ञानं नास्ति केवलिनां ज्ञानाज्ञानं च नास्ति क्वापि विषये ज्ञान क्वापि विषये पुनरज्ञानमेव किंतु सर्वत्र ज्ञानमेव, अथवा मतिज्ञानादिभेदेन नानाभेदं ज्ञानं नास्ति