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षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन नाम ज्ञानसे अभिन्न है, ज्ञानका संस्थान ज्ञानीसे अभिन्न है, ज्ञानीका संस्थान ज्ञानसे अभिन्न है, ज्ञानकी संख्या ज्ञानीसे अभिन्न है, ज्ञानीकी संख्या ज्ञानसे अभिन्न है, ज्ञानका आधार ज्ञानीसे अभिन्न है, ज्ञानीका आधार ज्ञानसे अभित्र है। इस तरह ज्ञान और ज्ञानीमें अपृथक्त्व या अभेद कथन है । इन दोनों दृष्टांतोंके अनुसार दार्टान्त विचार लेना चाहिये जहाँ भिन्न-भिन्न द्रव्य हों उनका नामादि भिन्न-भिन्न जानना चाहिये । जैसे पूर्वकी गाथामें देवदत्त और गौका दृष्टांत दिया। जिस एक ही द्रव्यमें अभेदसे नामादि कहे जावें वहाँ निश्चयसे अभेद जानना चाहिये । जैसे वृक्षकी शाखा या जीवा के अनन्तज्ञान आदि गुण इत्यादि । यहाँ इस सूत्रमें जिसका जीवके साथ अभिन्न व्यपदेश, अभिन्न संस्थान, अभिन्न संख्या, अभिन्न आधार है और जो जीवको ज्ञानी बताता है व जिसके ही लाभ बिना अनादिकालसे यह जीव नरनारक आदि गतियोंमें घूमा है व जो वास्तवमें मोक्षरूपी वृक्षका बीज है व जिसकी ही भावनाके बलसे उसीके फलस्वरूप बिना क्रमसे समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावको जाननेवाला सर्व प्रकार निर्मल केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है उसी निर्विकार स्वसंवेदन ज्ञानकी भावना ज्ञानियोंको करनी योग्य है यह अभिप्राय है ।।४७।।
समय व्याख्या गाथा ४८ द्रव्यगुणानामांतरभूतत्वे दोषोऽयम् ।
णाणी णाणं च सदा अत्यं-तरिदा दु अण्ण-मण्णस्स । दोण्हं अचेदणत्तं पसजदि सम्म जिणाव- मदं ।। ४८।।
ज्ञानी ज्ञानं च सदार्थांतरिते त्वन्योऽन्यस्य ।।
द्वयोरचेतनत्वं प्रसजति सम्यग् जिनावमतम् ।। ४८ ।। ज्ञानी ज्ञानाद्यांतरभूतस्तदा स्वकरणांशमंतरेण परशुरहितदेवदसवत्करणव्यापारासमर्थत्वादचेतयमानोऽचेतन एव स्यात् । ज्ञानञ्च यदि ज्ञानिनोऽर्थांतरभूतं तदा तत्कशमंतरेण देवदत्तरहितपरशुवत्तत्कर्तृत्वव्यापारासमर्थत्वादचेतयमानमचेतनमेव स्यात्। न च ज्ञानज्ञानिनोर्युतसिद्धयोगेन चेतनत्वं द्रव्यस्य निर्विशेषस्य गुणानां निराश्रयाणां शून्यत्वादिति ।। ४८।।
हिन्दी समय व्याख्या गाथा ४८ अन्वयार्थ—( ज्ञानी ) यदि ज्ञानी [आत्मा ] [ च] और ( ज्ञानं ) ज्ञान [ सदः] सदा (अन्योन्यस्य ) परस्पर ( अर्थान्तरिते तु ) अर्थान्तरभूत ( भिन्नपदार्थभूत ) हों तो { द्वयोः । दोनों को ( अचेतनत्वं प्रसजति ) अचेतनपनेका प्रसंग आजाये ( सम्यग् जिनावमतम् । ऐसा जिनका सम्यक् मत है।