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षद्रव्य - पंचास्तिकायवर्णन गाथा ३
अन्वयसहित सामान्यार्थ - ( णाणी ) ज्ञानी आत्मा ( गाणं च ) और उसका ज्ञान ( अण्ण मण्णस्स ) एक दूसरेसे ( सदा ) हमेशा ( अत्यंतरिदो दु ) यदि भिन्न पदार्थ हों तो ( दोहं ) दोनों आत्मा और ज्ञानको ( अचेदात्तं ) अचेतनपना ( पसजदि) प्राप्त हो जायगा यह ( सम्म) भले प्रकार ( जिणावमदं ) जिनेन्द्रका कथन है ।
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विशेषार्थ - जैसे यदि अग्नि गुणी अपने गुण ऊष्णपनेसे अत्यन्त भिन्न हो जावे तो अग्नि दग्ध करनेके कार्यको कर सकनेसे निश्चयसे शीतल हो जावे उसी प्रकार जीव गुणी अपने ज्ञान गुण से भिन्न हो जावे तो पदार्थ को जानने में असमर्थ होनेसे जड़ हो जावे । जैसे उष्ण गुण से अग्नि अत्यन्त भिन्न मानी जावे तो दहन क्रिया के प्रति असमर्थ होने से शीतल होजावे तैसे ही ज्ञान गुणसे अत्यन्त भिन्न यदि ज्ञानी जीव माना जावे तो वह पदार्थके जाननेको असमर्थ होता हुआ अचेतन जड हो जावे तब ऐसा हो जावे जैसे देवदत्त घसियारेसे उसका घास काटने का दतीला भिन्न है वैसे ज्ञानसे ज्ञानी भिन्न हो जावे सो ऐसा नहीं कहा जा सकता है। दीता तो छेड़नेके कार्य में मात्र बाहरी उपकरण है परन्तु भीतरी उपकरण तो वीर्यांतराय के क्षयोपशमसे उत्पन्न पुरुषका वीर्यविशेष है। यदि भीतर शक्ति न हो तो दतीला हाथमें होते हुए भी छेदनेका काम नहीं हो सकता है। तैसे ही प्रकाश, गुरु आदि बाहरी सहकारी कारणोंके होते हुए यदि पुरुषमें भीतर ज्ञानका उपकरण न हो तो वह पदार्थको जानने रूप कार्य नहीं कर सकता है। यहाँ यह तात्पर्य है कि जिस ज्ञानके अभावसे जीव जड़ होता हुआ वीतराग सहज व सुन्दर आनंदसे पूर्ण पारमार्थिक सुखको उपादेय न जानता हुआ संसार में भ्रमा है उसी रागादि विकल्पोंसे रहित अपने शुद्धात्मानुभवमय ज्ञानको ग्रहण करना चाहिये ।। ४८ ।।
इस तरह व्यपदेशादिके व्याख्यानकी मुख्यतासे तीन गाथाएँ कही । समय व्याख्या गाथा ४९
ज्ञानज्ञानिनोः समवायसंबंधनिरासोऽयम् ।
ण हि सो समवायादो अत्थं तरिदो द णाणदो णाणी ।
अण्णाणीति च वयणं एगत्तप्प साधगं होदि ।। ४९ ।।
न हि सः समवायादार्थंतरितस्तु ज्ञानतो ज्ञानी ।
अज्ञानीति च वचनमेकत्वप्रसाधकं भवति ।। ४९ ।।
न खलु ज्ञानादर्थान्तरभूतः पुरुषो ज्ञानसमवायात् ज्ञानी भवतीत्युपपन्नम् । स खलु
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