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षड्द्रव्य - पंचास्तिकायवर्णन गाथा ३
अत्र व्याख्याने यथा ज्ञानगुणेन सहानादितादात्म्यसंबंध: प्रतिपादितो द्रष्टव्यो जीवेन सह तथैव च यदन्यान्बाधरूपमप्रमाणमविनश्वरं स्वाभाविकं रागादिदोषरहितं परमानंदैकस्वभावं परमार्थिकसुखं तत्प्रभृतयो ये अनंतगुणाः केवज्ञानांतर्भूतास्तैरपि सहानादितादात्म्यसंबंध: श्रद्धातव्यो ज्ञातव्यः तथैव च समस्तरागादिविकल्पत्यागेन निरंतरं ध्यातव्य इत्यभिप्राय: ॥ ५० ॥ एवं समवायनिराकरणमुख्यत्वेन गाथाद्वयं गतं ।
हिन्दी तात्पर्यवृत्ति गाथा ५०
उत्थानिका- आगे फिर समर्थन करते हैं कि गुण और गुणीकी एकताको छोड़ कर और कोई समवाय नहीं है ।
अन्यसहित सामान्यार्थ - ( समवती ) द्रव्य और गुणका साथ साथ रहना ( समवाओ ) समवाय है ( अधम्भूदो य ) यही अपृथग्भूत या अभिन्न है ( अजुदसिद्धो य ) तथा यही अयुतसिद्ध है - कभी मिलकर नहीं हुआ है ( तम्हा ) इसलिये ( दव्वगुणाणं) द्रव्य और उसके गुणोंका ( अजुदा सिद्धित्ति ) अयुत सिद्धपना है ऐसा ( णिद्दिट्ठा ) कहा गया है ।
विशेषार्थ - जैन मतमें समवाय उसीको कहते हैं जो साथ-साथ रहते हों अर्थात् जो किसी अपेक्षा एकरूपसे अनादिकालसे तादात्म्य सम्बन्ध या न छूटनेवाला सम्बन्ध रखते हों ऐसा साथ वर्तन गुण और गुणीका होता है इससे दूसरा कोई अन्यसे कल्पित समवाय नहीं है । यद्यपि गुण और गुणीमें संज्ञा लक्षण प्रयोजनादिकी अपेक्षा भेद है तथापि प्रदेशोंका भेद नहीं है इससे वे अभिन्न हैं । तथा जैसे दंड और दंडी पुरुषका भिन्न भिन्न प्रदेशपनारूप भेद है तथा वे दोनों मिल जाते हैं ऐसा भेद गुण और गुणीमें नहीं है इससे इनमें अयुतसिद्धपना या एकपना कहा जाता है । इस कारण द्रव्य और गुणोंका अभिन्नपना सदासे सिद्ध है । इस व्याख्यानमें यह अभिप्राय है कि जैसे जीवके साथ ज्ञान गुणका अनादि तादात्म्य सम्बन्ध कहा गया है तथा वह श्रद्धान करने योग्य है वैसे ही जो अव्याबाध, अप्रमाण, अविनाशी व स्वाभाविक रागादि दोष रहित परमानंदमय एक स्वभाव रूप पारमार्थिक सुख है इसको आदि लेकर जो अनंत गुण केवलज्ञानमें अंतर्भूत हैं उनके साथ भी जीवका तादात्म्यसम्बन्ध जानना योग्य है तथा उसी ही जीवको रागादि विकल्पोंको त्यागकर निरंतर ध्याना चाहिये || ५० ॥
इस तरह समवायका खंडन करते हुए दो गाथाएं कहीं ।