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पंचास्तिकाय प्राभृत नैवं । णाणाणि होति णेगाणि-मत्यादिज्ञानानि भवंत्यनेकानि यस्मादनेकानि ज्ञानानि भवन्ति-तम्हा दु विस्सरूपं भणियं तस्मात्कारणादनेकज्ञानगुणापेक्षया विश्वरूपं नानारूपं भणितं । किं । दवियत्तिजीवद्रव्यमिति । कैर्भणितं णाणीहि-हेयोपादेयतत्त्वविचारज्ञानिभिरिति । तथाहि-एकास्तित्वनिवृत्तत्वेनैकद्रव्यत्वात् एकप्रदेशनिर्वृत्तत्वेनैकक्षेत्रत्वात् एकसमयनिवृत्तत्वेनैककालत्वात् मूर्तेकजड़स्वरूपत्वनैकस्वभावत्वाच्च परमाणोर्वर्णादिगुणैः सह यथा भेदो नास्ति तथैवैकास्तित्वनिर्वृनत्वेने. कद्रव्यत्वात् लोकाकाशप्रमितासंख्येयाखंडैकप्रदेशत्वेनैकक्षेत्रत्वात् एकसमयनिवृत्तत्वनैककालत्वात् एकचैतन्यनिर्वृत्तत्वेनैकस्वभावत्वाच्च ज्ञानादिगुणैः सह जीवद्रव्यस्यापि भेदो नास्ति । अथवा शुद्धजीवापेक्षया शुद्धकास्तित्वनिर्वृत्तत्वेनैकद्रव्यत्वात् लोकाकाशप्रमितासंख्येयाखंडैकशुद्धप्रदेशत्चेनैकक्षेत्रत्वात् निर्विकारचिच्चमत्कारमात्रपरिणतिरूपवर्तमानैकसमयनिर्वृत्तत्वेनैककालत्वात् निर्मलैकचिज्जोति:स्वरूपेणैकस्वभावत्वात् च सकलविमलकेवलज्ञानाद्यनंतगुणैः सह शुद्धजीवस्यापि भेदा नास्तीति भावार्थः ।।४३।।
हिन्दी तात्पर्यवृत्ति गाथा-४३ उत्थानिका--आगे कहते हैं कि आत्माका ज्ञानादि गुणोंके साथ संज्ञा लक्षण प्रयोजनादिको अपेक्षा भेद होनेपर भी निश्चयनयसे प्रदेशोंकी अपेक्षा भिन्नता नहीं है तथा मति आदि ज्ञानके अनेकपना है
अन्वयसहित सामान्यार्थ-[णाणी ] ज्ञानी आत्मा [णरणादो ] ज्ञान गुणसे ( ण वियप्पदि ) भिन्न नहीं किया जा सकता है, पृथक् नहीं किया जा सकता है तथा [णाणााणि ] ज्ञान [अणेगाणि ] अनेक प्रकार पति आदि रूपसे [ होंति ] होते हैं। ( तम्हा दु ) इसीलिये ही [णाणीहि ] हेय उपादेय तत्त्वके विचार करनेवाले ज्ञानियोंके द्वारा [ विस्सरूवं] नाना रूप [दवियत्ति ] जीव द्रव्य है ऐसा ( भणियं) कहा गया है ।
विशेषार्थ-एक पुगलका परमाणु अपने एकपनेकी सत्ताको रखनेसे एक द्रष्यरूप है, एक प्रदेशको रखनेसे एक क्षेत्ररूप है, एक समय मात्र परिणमनको रखनेसे एक कालरूप है, मूर्तिक एक जड़ स्वरूप रखनेसे एक स्वभावरूप है, ऐसे अपने द्रव्यादि चतुष्टयको रंचानेवाले परमाणुका जैसे अपने वर्णादि गुणोंके साथ भेद नहीं है तैसे ही जीव द्रव्यका भी अपने ज्ञानादि गुणोंके साथ भेद नहीं है । जीव द्रव्य भी अपने द्रव्यादि चतुष्टयसे तन्मय है। वह एक अपनी सत्ताको रखनेसे एक द्रव्यरूप है, लोकाकाश प्रमाण असंख्यात अखंड एकमय प्रदेश रखनेसे एक क्षेत्ररूप है एक समयरूप वर्तनकी अपेक्षा एक कालरूप है, एक चैतन्य स्वभाव रखनेसे एक स्वभावरूप है। इस तरह एक जीव द्रव्यका अपना चतुष्टय जानना चाहिये । इसी तरह शुद्ध जीवकी अपेक्षासे यदि विचार करें तो शुद्ध एक