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षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
हिन्दी तात्पर्यवृत्ति गाथा-४५ उत्थानिका-आगे फिर दिखलाते हैं कि द्रव्य और गुणोमें कथंचित् अभिन्न प्रदेशपना है-उनकी एकता है।
अन्वयसहित सामान्यार्थ-(दव्वगुणाणं) द्रव्य और गुणोंका ( अविभत्तं ) एकपना तथा ( अणण्णतं) अभिन्नपना है ( णिच्चयाहू ) निश्चयनयके ज्ञाता ( विभत्तं अण्णत्तं) उनका विभाग व भिन्नपना ( णिच्छति) नहीं चाहते हैं। (वा) अथवा ( तेर्सि) उनका ( तबिवरीदं) उससे विपरीत स्वभान अर्थात् भिकापनेसे विणीत अभिनना (हि) निश्चयसे सर्वथा नहीं मानते हैं।
विशेषार्थ-जैसे परमाणुका वर्णादि गुणों के साथ अभिन्नपना है अर्थात् उनमें परस्पर प्रदेशोंका भेद नहीं है तैसे शुद्ध जीव द्रव्यका केवलज्ञानादि प्रगटरूप स्वाभाविक गुणोंके साथ और अशुद्ध जीवका मतिज्ञान आदि प्रगटरूप विभाव गुणोंके साथ तथा शेष द्रव्योंका अपने- अपने गुणोंके साथ यथासंभव एकपना है अर्थात् द्रव्य और गुणोंके भिन्न-भिन्न प्रदेशोंका अभाव जानना चाहिये निश्चय स्वरूपके ज्ञाता जैनाचार्य जैसे हिमाचल और विध्याचल पर्वतमें भिन्नपना है अथवा एक क्षेत्र में रहते हुए जल और दूधका भिन्न प्रदेशपना है ऐसा भिन्नपना द्रव्य और गुणोंका नहीं मानते हैं तो भी एकांतसे द्रव्य और गुणोंका अन्यपनेसे विपरीत एकपना भी नहीं मानते हैं । अर्थात् जैसे द्रव्य और गुणोंमें प्रदेशों की अपेक्षा अभिन्नपना है तैसे संज्ञा आदिकी अपेक्षासे भी एकपना है ऐसा नहीं मानते हैं । अर्थात् एकांतसे द्रव्य और गुणोंका न एकपना मानते हैं न भिन्नपना मानते हैं । बिना अपेक्षा के एकत्व व अन्यत्व दोनोंको नहीं मानते हैं, किंतु भिन्न-भिन्न अपेक्षासे दोनों स्वभावोंको मानते हैं। प्रदेशोंकी एकतासे एकपना है । संज्ञादिकी अपेक्षा द्रव्य और गुणोंका अन्यपना है ऐसा आचार्य मानते है । यहाँ यह तात्पर्य है कि विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावमयी आत्मतत्त्वसे भिन्नरूप जो विषय व कषाय हैं उनसे रहित होकर उसी परम चैतन्य स्वरूप परमात्मा तत्त्व से जो एकता रूप निर्विकल्प परम आह्लादमयी सुखामृत रसके स्वादका अनुभव है उसको धारनेवाले जो पुरुष है उनको वही आत्मा ग्रहण करने योग्य है जो लोकाकाश प्रमाण असंख्यात शुद्ध प्रदेशोंके साथ तथा अपने केवलज्ञानादि गुणोंके साथ एक रूप है ।। ४५।। __ इस तरह गुण और गुणीमें संक्षेपसे अभेद और भेदके व्याख्यानकी अपेक्षा गाथा तीन कहीं। ये गाथाएं नं० ४३, ४४ व ४५ जाननी ।
व्यपदेशादीनामेकांतेन द्रव्यगुणान्यत्वनिबंधनत्वमत्र प्रत्याख्यातम् ।