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पंचास्तिकाय प्राभृत
१४५ केवलदर्शनं भवतीति । अत्र केवलदर्शनाविनाभूतानंतगुणाधारः शुद्धजीवास्तिकाय एवोपादेय इत्यभिप्राय: ।।४२॥ एवं दर्शनोपयोगव्याख्यानमुख्यत्वेन गाथा गता।
हिन्दी तात्पर्यवृत्ति गाथा-४२ आगे दर्शनोपयोगके भेदोंकी संज्ञा व स्वरूप कहते हैं
अन्वय सहित सामान्यार्थ-[दसणं] दर्शन ( अवि) भी ( चक्खुजुर्द) चक्षु सहित ( अवि) तथा [ अचक्खुजुदं ] अचक्षु सहित ( य) और [ ओहिणासहियं ] अवधि सहित (चावि ) तैसे ही ( अणिधर्ण अंतरहित [अणंतविसयं ] अनंतको विषय करनेवाला ( केवलियं) केवल सहित ( पण्णतं) कहा गया है ।
विशेषार्थ-दर्शनोपयोग चार भेद हैं जिनके नाम-चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल हैं। यह आत्मा निश्चयनयसे अनंत व अखंड एक दर्शन स्वभावको धारनेवाला है तो भी व्यवहारनयसे संसार दशामें निर्मल व शुद्ध आत्माके अनुभवको न पानसे जो कर्म बांधे है उनसे ढका हुआ चक्षुर्दर्शनावरण कर्मके क्षयोपशमसे बाहरी चक्षु नामके द्रव्येद्रियके अवलम्बनसे जो मूर्तिक वस्तुको विकल्परहित सत्ता अवलोकन मात्र देखता है वह चक्षुदर्शन है तथा चक्षुके सिवाय अन्य चार इन्द्रिय तथा नोइन्द्रिय या मनके आवरणके. क्षयोपशम होनेपर बाहरी स्पर्शादि चार द्रव्य इन्द्रिय और द्रव्य मनके आलम्बनसे जो मूर्तिक अमूर्तिक वस्तुको विकल्परहित सत्तर अवलोकन मात्र यथासंभव देखता है सो अचक्षुदर्शन है, वही आत्मा अवधि दर्शनावरण कर्मके क्षयोपशम होनेपर जो मूर्तिक वस्तुको विकल्प रहित सत्ता अवलोकन मात्र प्रत्यक्ष देखता है सो अवधिदर्शन है तथा रागादि दोषोंसे रहित चिदानन्दमय एक स्वभावरूप अपने शुद्वात्माके अनुभवमय निर्विकल्प ध्यानके बलसे सर्व केवल दर्शनावरण कर्मके क्षय हो जाने पर तीन जगतवर्ती ध तीन कालवर्ती वस्तुओंमें प्राप्त जो सत्ता सामान्य उसको एक समय में देखता है वह अनंत दर्शन पदार्थों की सत्ताको विषय करनेवाला स्वाभाविक केवलदर्शन है। यहाँ यह अभिप्राय है कि केवलदर्शनके साथ अविनाभावी अर्थात् अवश्य रहनेवाले अनंत गुणोंका आधार जो शुद्धजीवास्तिकाय है वही गुण करने योग्य है ।। ४२।।
इस तरह दर्शनोपयोग का व्याख्यान करते हुए गाथा कही।