________________
१४२
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन किंतु केवलज्ञानमेकमेवेति । अथ मतिज्ञानादिभेदेन यानि पंचज्ञानानि व्याख्यातानि तानि व्यवहारणेति, निश्चयेनारखंडैकज्ञानप्रतिभास एवात्मा निर्मघादित्यवदिति भावार्थ: ।।५॥ एवं मत्यादिपंचज्ञानव्याख्यानरूपेण गाथापंचकं गतं ।
हिन्दी तात्पर्यवृत्ति गाथा-५ . उत्थानिका-आगे केवलज्ञज्ञनको कहते हैं
अन्वय सहित सामान्यार्थ-[केवलणाणं ] केवलज्ञान [णेयणिमित्तं ] ज्ञेयके निमित्तसे [ण होदि] नहीं होता है, [सुदणाणं ण होदि] न श्रुतज्ञान है। ( केवलिणो) केवली भगवानके [णाणाणाणं च णस्थि] ज्ञान अज्ञानकी कल्पना नहीं है, उसे ( केवल) मात्र (णाणं) ज्ञान [णेयं] जानना योग्य है।
विशेषार्थ-केवलज्ञान घटपट आदि जानने योग्य पदार्थोके आश्रयसे नहीं उत्पन्न होता है इसलिये वह जैसे ज्ञेय पदार्थोके निमित्तसे नहीं होता है वैसे ही श्रुतज्ञानरूप भी नहीं है यद्यपि दिव्यध्वनिके समयमें इस केवलानके आधारसे गणधरदेव आदिकोंके श्रुतज्ञान होता। है । तथापि वह श्रुतज्ञान गणथरदेवादिको ही होता है केवली अरहन्तोंके नहीं है। केवली भगवानके ज्ञानमें किसी सम्बन्धमें व किसीमें अज्ञान नहीं होता है, किन्तु सर्व ज्ञेयोंका विना क्रमके ज्ञान होता है अथवा मतिज्ञान आदि भेदोंसे नाना प्रकार का ज्ञान नहीं है किन्तु एक मात्र शुद्ध ज्ञान हीं है। यहाँ जो मतज्ञान आदिके भेदसे पाँच ज्ञान कहे गए हैं वे सब व्यवहारनयसे हैं । निश्चयसे अखंड एक ज्ञानके प्रकाशरूप ही आत्मा है जैसे मेघादि रहित सूर्य होता है यह तात्पर्य है ।।५।। इस तरह मतिज्ञान आदि पांच ज्ञानोंको कहते हुए पाँच गाथाएँ पूर्ण हुईं।
संस्कृत तात्पर्यवृत्ति गाथा-६ अथाज्ञानत्रयं कथयति--
मिच्छत्ता अण्णाणं अविरदि-भावो य भाव-आवरणा।
णेयं पडुच्च काले तह दुण्णय दुप्पमाणं च ॥६।। मिच्छत्ता अण्णाणं--द्रव्यमिथ्यात्चोदयात्सकाशाद्भवतीति क्रियाध्याहारः । किं भवति । अण्णागं अविरदिभावो य-ज्ञानमप्यज्ञानं भवति । अत्राज्ञानशब्देन कुमत्यादित्रयं मह्यं । न केवलज्ञानं भवति । अविरतिभावश्च अव्रतपरिणामश्च । कथंभूतान्मिथ्यात्वोदयादज्ञानमविरतिभावश्च भवति । भावावरणा भावस्तत्तत्रार्थश्रद्धानलक्षणं भावसम्यवत्वं तस्यावरणं झंपनं भावावरणं तस्माद्भावावरणाद्भावमिथ्यात्वादित्यर्थः । पुनरपि किं भवति मिथ्यात्वात् । तह दुण्णय दुप्पमाणं