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षड्द्रव्य - पंचास्तिकायवर्णन
( च भावणं) और भावना या जाने हुए का विचार । ( तह एव) तैसे ही वह (चदुवियप्पं ) चार प्रकार है । ( दंसणपुखं ) दर्शनपूर्वक (गाणं ) यह ज्ञान ( हवदि ) होता है ।
विशेषार्थ - यह आत्मा निश्चय नयसे अखंड एक शुद्ध ज्ञानमय है व व्यवहारनयसे संसारकी अवस्थामें कर्मोंसे ढका हुआ है । मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम होनेपर पांच इन्द्रिय और मनके द्वारा जो कोई मूर्तिक और अमूर्तिक वस्तुओंको विकल्प सहित या भेद सहित जानता है वह मतिज्ञान है । सो तीन प्रकार का है- मतिज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमसे जो पदार्थोंको जाननेकी शक्ति प्राप्त होती है उसको उपलब्धि मतिज्ञान कहते हैं। यह नीला है, यह पीला । इत्यादि रूपसे जो पदार्थको जाननेका व्यापार उसको उपयोग मतिज्ञान कहते हैं। जाने हुए पदार्थको बारबार चिन्तवन करना सो भावना मतिज्ञान है । यही मतिज्ञान अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणाके भेदसे चार प्रकार का है। अथवा कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि पदानुसारी बुद्धि और संभिन्नश्रोतृता बुद्धिके भी चार प्रकार है । यह मतिज्ञान सत्ता अवलोकनरूप दर्शनपूर्वक होता है। यहाँ यह तात्पर्य है कि निश्चयनयसे निर्विकार शुद्धात्मानुभवके सन्मुख जो भतिज्ञान है वही उपादेयभूत अनंतसुखका साधक होनेसे ग्रहण योग्य है-उसीका साधक जो बाहरी मतिज्ञान है वह व्यवहानयसे उपादेय है । । १ । ।
संस्कृत तात्पर्यवृत्ति गाथा- २
सुदणाणं पुण णाणी भांति लद्धीय भावणा चेव । उवओगणयवियप्यं णाणेण य वत्थु अत्यस्स ||२||
सुदणाणं पुण णाणी भांति स एव पूर्वोक्तात्मा श्रुतज्ञानावरणीयक्षयोपशमे सति यन्मूर्तमूर्त वस्तु परोक्षरूपेण जानाति तत्पुनः श्रुतज्ञानं ज्ञानिनो भणन्ति । तच्च कथंभूतं ? लद्धी य भावणा चेव लब्धिरूपं च भावनारूपं चैव । पुनरवि किंविशिष्टं । उवओगणयवियष्पं-उपयोगविकल्पं नयविकल्पं च । उपयोगशब्देनात्र वस्तुग्राहकं प्रमाणं भण्यते नयशब्देन तु वस्त्वेकदेशग्राहको ज्ञातुरभिप्रायो विकल्पः । तथा चोक्तं । नयो ज्ञातुरभिप्रायः । केन कृत्वा वस्तुग्राहकं प्रमाणं वस्त्वेकदेशग्राहको नय इति चेत् ? णाणेण य-ज्ञातृत्वेन परिच्छेदकत्वेन ग्राहकत्वेन, वत्थु अत्थस्स-सकलवस्तुग्राहकत्वेन प्रमाणं भण्यते । अर्थस्य वस्त्वेकदेशस्य, कथंभूतस्य ? गुणपर्यायरूपस्य ग्रहणेन पुनर्नय इति । अत्र विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावशुद्धात्मतत्त्वस्य सम्यक् श्रद्धानज्ञानानुचरणाभेदरत्नत्रयात्मकं यद्भावश्रुतं तदेवोपादेयभूतपरमात्मतत्त्वसाधकत्वान्निश्चयेनोपादेयं तत्साधकं बहिरंगं तु व्यवहारेणेति तात्पर्यं ॥ २ ॥