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पंचास्तिकाय प्राभृत अन्वयसहित सामान्यार्थ-(आभिणिसदोथिमणकेवलाणि) मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवल ( पंचभेयाणि) ये पांच भेद रूप ( णाणाणि) सम्यग्ज्ञान हैं सो (कुमदिसुदविभंगाणि) कुमति, कुश्रुत, विभंग [ तिण्णि वि णाणेहि ] ऐसे तीन अज्ञानोंसे ( संजुत्ते) संयुक्त सर्व आठ भेद ज्ञानके होते हैं।
विशेषार्थ-जैसे सूर्य एक ही है, मेघोंके आवरण होनेसे उसकी प्रभाके अनेक भेद हो जाते हैं वैसे ही निश्शयनयसे यह आत्मा भी अखंड है व एक तरहसे प्रकाशमान है तो भी व्यवहारनयसे कर्मोकि पटलोंसे घिरा हुआ है इसलिये उसके ज्ञानके यह सुमति ज्ञान आदि बहुत भेद हो जाते हैं ।।४१।। आठ प्रकार के ज्ञानोपयोग की संज्ञा कहनेवाली गाथा समाप्त हुई। आगै छ गाथाओं की समय व्याख्या टीका उपलब्ध नहीं है अत: संख्या १ से ६ तक पृथक् दी है।
संस्कृत तात्पर्यवृत्ति गाथा-१ . अथ मत्यादिपंचज्ञानानां क्रमेण गाथापंचकेन व्याख्यानं करोति । तथाहि
मदिणाणं पण तिविहं उवलद्धी भावणं च उवओगो ।
तह एव चदुवियप्पं दंसणपुव्वं हवदि णाणं ॥१॥ मदिणाणं-अयमात्मा निश्चयनयेन तावदखण्डैकविशुद्धज्ञानमय: व्यवहारनयेन संसारावस्थायां कर्मावृतः सन्मतिज्ञानावरणक्षयोपशमे सति पंचभिरिन्द्रियैर्मनसा च मूर्तामूर्त वस्तु विकल्परूपेण यज्जानाति तन्मतिज्ञानं । पुण तिविहं-तच्च पुनस्त्रिविधं, उवलद्धी भावणं च उवओगो-उपलब्धिर्भावना तथोपयोगश्च, मतिज्ञानावरणीयक्षयोपशमजनितार्थग्रहणशक्तिरुपलब्धिरूपलब्धख़तेथे पुनः पुनश्चितनं भावना नीलमिदं पीतमिदं इत्यादिरूपेणार्थग्रहणव्यापार उपयोगः । तह एव चदुवियप्पंतथैवावग्रहहावायधारणा-भेदेन चतुर्विधं, वरकोष्ठबीजपदानुसारिसंभित्रश्रोतृताबुद्धिभेदेन वा । दंसणपुवं हवदि णाणं-तच्च मतिज्ञानं सत्तावलोकनदर्शनपूर्वकमिति । अत्र निर्विकार शुद्धात्मानुभूत्यभिमुखं यन्मतिज्ञानं तदेवोपोदयभूतानंतसुखसाधकत्वान्निश्चयेनोपादेयं तत्साधकं बहिरंगं पुनर्व्यवहारेणेति तात्पर्य ।।१।।
हिन्दी तात्पर्यवृत्ति गाथा-१ उत्थानिका-आगे मति आदि पांच ज्ञानका स्वरूप गाथा पांचसे कहते हैं। ये गाथाएं अमृतचंद्रकृत टीकामें नहीं हैं।
अन्वयसहित सामान्यार्थ-(पुण) तथा ( मदिणाणं) मतिज्ञान (तिविहं) तीन प्रकार है ( उवलद्धी) उपलब्धि या जाननेकी शक्ति, ( उवओगो) उपयोग या जाननेरूप व्यापार