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पंचास्तिकाय प्राभृत अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे जीव शरीरके साथ दूध पानीकी तरह एकमेकसा हो जाता है तथापि निश्यचनयसे देहके साथ एकरूप तन्मय व देहसरीखा नहीं बन जाता हैस्वभावसे भिन्न ही रहता है । यह शरीरभरमें व्यापता है, उसके एक भागमें नहीं रहता है । अथवा यह अर्थ है कि सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंकी अपेक्षा लोकमें सब ठिकाने जीवोंके समूह हैं वे जीव यद्यपि केवलज्ञानादि गुणोंकी समानतासे बराबर है इससे उनमें एकता है तथापि अपने-अपने भिन्न-भिन्न लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशोंको रखते हुए अलग अलग हैं। जैसे सोले वाणीके शुद्ध सुवर्ण की डलियोंको भिन्न-भिन्न रंगके वस्त्रों में बांधकर रक्खें तो वे सर्व सुवर्ण एक भावके हैं, समान हैं । तथापि हरएक डलीकी सत्ता अपने-अपने यसमें अलग-अलग है ऐसे ये जीव जानने । यद्यपि शुद्ध निश्चयनयसे यह जीव केवलज्ञान और केवल दर्शन स्वभावका धारी है तथापि अनादि कर्मबंयके वशसे रागद्वेषादि अध्यवसाय रूप भावकर्मोसे तथा उनसे उत्पन्न ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म मलोंसे घिरा हुआ अन्य शरीर ग्रहण करने के लिये एक भवसे दूसरे भवमें जाता रहता है यहाँ यह अभिप्राय है कि जो कोई देहसे भिन्न अनंतज्ञानादि गुणधारी शुद्धात्मा कहा गया है वही शुभ व अशुभ संकल्पविकल्पोंके त्यागके समयमें सर्व तरहसे उपादेय है अर्थात् ध्यान करने योग्य है ।। ३४।।
इस तरह मीमांसक, नैयायिक व सांख्यमतानुसारी शिष्यके संशय विनाश करनेके लिये "वेग्रणकसायवेगुब्धियो य मारणंतियो समुग्घादो, तेजो हारो छटो सत्तमओ केवलीणं तु" इस गाथामें कहे प्रमाण वेदना, कषाय, वैक्रियिक मारणांतिक, तैजस, आहारक तथा केवली इन सात समुद्धातोंको छोड़कर यह जीव अपनी देहके प्रमाण आकार रखता है, इस व्याख्यानकी मुख्यतासे दो गाथाएँ कहीं।।
समय व्याख्या गाथा-३५ सिद्धानां जीवत्वदेहमानत्वव्यवस्थेयम् ।
जेसिं जीव-सहावो णस्थि अभावो य सबहा तस्स । ते हांति भिण्ण-देहा सिद्धा वचि-गोयर-मदीदा ।।३५।।
येषां जीवस्वभावो नास्त्यभावश्च सर्वथा तस्य ।
ते भवन्ति भिन्नदेहाः सिद्धा वाग्गोचरमतीताः ।। ३५।। सिद्धानां हि द्रव्यप्राणाधारणात्मको मुख्यत्वेन जीवस्वभावो नास्ति न च जीवस्वभावस्य सर्वथाभावोऽस्ति भावप्राणधारणात्मकस्य जीवस्वभावस्य सद्भावात् । न च तेषां शरीरेण