________________
पंचास्तिकाय प्राभृत
हिन्दी तात्पर्यवृत्ति गाथा-३७ उत्थानिका--आगे जीवका अभाव होना सो मुक्ति है ऐसा जो सौगत या बौद्धका मत है उसका निराकरण करते हैं
अन्वय सहित सामान्यार्थ-( सस्सदम् ) शाश्वतपना ( अय) और ( उच्छेदं ) व्ययपना [भव्यम् ] भव्यपना (च) और [ अभव्यं] अभव्यपना, (सुण्णं) शून्यपना [च ] और ( इदरं ) दूसरा अशून्यपना (विपणाणं) विज्ञान [ अविण्णाणं] तथा अविज्ञान ( सम्भावे असदि) सिद्ध जीवकी सत्ता विद्यमान न रहते हुए [ण वि जुज्जदि ] नहीं हो सकते हैं
विशेषार्थ-सिद्ध भगवानकी सत्ता सदा बनी रहती है इसीसे उनमें नीचे लिखे आठ स्वभाव सिद्ध होते हैं ( १) शाश्वतपना इसलिये है कि वे सिद्ध भगवान अपने टंकोत्कीर्ण ज्ञाता द्रष्टामय एक स्वभाव रूपसे सदा बने रहते हैं, नष्ट नहीं होते हैं। (२) उच्छेद या व्ययपना इसलिये है कि पर्यायकी अपेक्षा अगुरुलघुगुणमें षट्स्थान पतित हानि वृद्धिकी अपेक्षासे सदा ही पर्यायोंका नाश हुआ करता है ये व्ययपना उत्पादका अविनाभावी है । यह उत्पाद व्यय होना हरएक द्रव्यकी पर्यायका स्वभाव है । (३) भव्यपना इसलिए कि विकार रहित चिदानंदमय एक स्वभावसे वे सदा परिणमन करते रहते हैं, यह उनमें होनापना या भव्यपना है। ( ४ ) अभव्यपना-इसलिये कि वे सिद्ध अवस्थामें कभी भी अतीत मिथ्यात्व व रागादि विभाव परिणामोंमें नहीं परिणमन करेंगे। इन रूप न होना यही अभव्यपना है । (५) शून्यपना-इसलिये कि अपने शुद्धात्पद्व्यसे विलक्षण जो परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल व परभाव चतुष्टय है इनका नास्तिपना या शून्यपना या अभाव सिद्धोंके विद्यमान है। (६) अशून्यपना-इसलिये है कि अपने परमात्मा सम्बन्धी निजद्रव्य, निजक्षेत्र, निजकाल व निजभाव रूप चतुष्टयसे उनमें अस्तिपना है । वे कभी अपने शुद्ध गुणोंसे रहित नहीं होते हैं (७) विज्ञान-इसलिये कि वे सर्व द्रव्यके सर्वगुण व सर्व पर्यायोंको एक समय प्रकाश करनेको समर्थ पूर्ण निर्मल केवलज्ञान गुणसे पूर्ण हैं । (८) अविज्ञान-इसलिये कि उनमें अब मतिज्ञानादि क्षयोपशमरूप अल्पज्ञानका अभाव है अर्थात् अब वे इन विभावरूप अशुद्ध ज्ञानोंसे शून्य है। इस तरह ये नित्यपना, अनित्यपना, भव्यपना, अभव्यपना, शून्यपना, अशून्यपना, विज्ञान, अविज्ञान से आठ स्वभाव- यदि जीवकी सत्ता मोक्षमें न मानी जावे तो-सिद्ध नहीं हो सकते हैं । जीवकी सत्ता रहते हुए ही सिद्ध होते हैं इनके अस्तित्वसे ही मुक्तिमें शुद्ध जीवकी सत्ता रहती है। यहाँ यह तात्पर्य है कि वही शुद्ध जीव ग्रहण करने योग्य है ।। ३७ ।।