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षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन तत्र विशेषग्राहि ज्ञानं, सामान्यप्राहि दर्शनम् । उपयोगश्च सर्वदा जीवादपृथग्भूत एव, एकास्तिस्स्वनिवृत्तत्वादिति ।।४।।
हिन्दी समय व्याख्या गाथा-४० अब उपयोग गुणका व्याख्यान है।
अन्वयार्थ--( ज्ञानेन च दर्शनेन संयुक्तः ) ज्ञान और दर्शनसे संयुक्त ऐसा ( खलु द्विविध: ) वास्तवमें दो प्रकारका ( उपयोग: ) उपयोग ( जीवस्य ) जीवको ( सर्वकालम् ) सर्वकाल ( अनन्यभूतं ) अनन्यरूपसे [विजानीहि ] जानो।
टीका-आत्माका चैतन्य-अनुविधायी ( अर्थात् चैतन्यका अनुसरण करनेवाला) परिणाम सो उपयोग है। वह भी दो प्रकारका है---ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । वहाँ, विशेषको ग्रहण करनेवाला ज्ञान है और सामान्यको ग्रहण करने वाला दर्शन है और उपयोग सर्वदा जीवसे अपृथग्भूत ही है, क्योंकि एक अस्तित्वसे रचित ( निष्पन्न ) है ।।४०।।
संस्कृत तात्पर्यवृत्ति गाथा-४० इत ऊर्ध्वमेकोनविंशतिगाथापर्यंतमुपयोगाधिकारः प्रारभ्यते । तद्यथा । अथात्मनो द्वेधोपयोग दर्शयति । उतओगो-आत्मनश्चैतन्यानुविधामिपरिणाम: उपयोग: चैतन्यमनुविदधात्यन्धयरूपेण परिंगमति अथवा पदार्थपरिच्छित्तिकाले घटोयं पटोयमित्याद्यर्थग्रहणरूपेण व्यापारयत्ति इति चैतन्यानुविधायी खलु स्फुटं, दुविहो-द्विविधः । स च कथंभूतः ? णाणेण य दंसणेण संजुत्तोसविकल्पं ज्ञानं निर्विकल्पं दर्शनं ताभ्यां संयुक्तः । जीवस्स सव्वकालं अणण्णभूदं वियाणीहितं चोपयोगं जीवस्य संबन्धित्वेन सर्वकालं संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेपि प्रदेशैरभिन्नं विजानीहीति ॥४०॥ एवं ज्ञानदर्शनोपयोगद्वयसूचनरूपेण गाथैका गता।
हिन्दी तात्पर्यवृित्ति गाथा-४० उत्यानिका-आगे उन्नीस गाथातक उपयोगका अधिकार कहते हैं। उनमें प्रथम ही बताते हैं कि आत्माके उपयोगके दो भेद हैं
अन्वयसहित सामान्यार्थ-( उवओगो) उपयोग ( खलु) वास्तवमें ( दुविहो) दो प्रकार का है ( णाणेण य दंसणेण संजुत्तो) ज्ञान और दर्शनसे संयुक्त अर्थात् ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग सो ( सव्वकालं) सर्वकाल ( जीवस्स ) इस जीवसे ( अणण्णभूदं ) एकरूप है-जुदा नहीं-ऐसा ( वियाणीहि ) जानो।
विशेषार्थ-आत्माका यह परिणाम जो उनके चैतन्य गुणके साथ रहनेवाला है उसको उपयोग कहते हैं अथवा जो चैतन्य गुणके साथ-साथ अन्वय रूपसे परिणमन करे सो