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पंचास्तिकाय प्राभृत
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समुत्पन्नपरमानंदैकसुखामृतसमरसीभावबलेन दशविधप्राणत्वमतिक्रांताः सिद्धजीवास्ते केवलज्ञानं विंदन्ति इत्यत्र गाथाद्वये केवलज्ञानचेतना साक्षादुपादेया ज्ञातव्येति तात्पर्यं ॥ ३९ ॥ एवं त्रिविधचेतनाव्याख्यानमुख्यत्वेन गाथाद्वयं गतं ।
हिन्दी तात्पर्यवृत्ति गाथा - ३९
उत्थानिका- आगे शिष्यने प्रश्न किया कि इस तीन प्रकार चेतनाको कौन-कौन अनुभव करते हैं ? इसका उत्तर आचार्य देते हैं
अन्यय सहित सामान्यार्थ - ( खलु ) वास्तवमें (सव्वे ) सर्व ( थावरकाया ) स्थावर कायधारी जीव (कम्मफलं ) कर्मोंके फलको (हि) निश्चयसे [तसा] त्रस जीव ( कज्जजुदं ) कार्य सहित कर्मफलको, और ( पाणित्तं अदिक्कंता ) जो प्राणोंसे रहित हैं ( ते जीवा ) वे जीव ( गाणं) ज्ञानको (विंदन्ति ) अनुभव करते हैं ।।
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विशेषार्थ सर्व ही प्रसिद्ध पृथ्वीकायिक, अष्कायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक स्थावर एकेन्द्रिय जीव अप्रगट सुख दुःखका अनुभव रूप शुभ या अशुभ कर्मके फलको अनुभव करते हैं और द्वेन्द्रियादि त्रस जीव निर्विकार परम आनन्दमय एक स्वभावधारी आत्माके सुखको नहीं अनुभव करते हुए उस कर्मफलको भी अनुभव करते हैं, साथमें विशेष राग द्वेषरूप कार्य की चेतना भी रखते हैं तथा जो जीव विशेष शुद्धात्मानुभवकी भावनासे उत्पन्न जो परमानंदमय एक सुखामृतरूप समरसी भाव उसके बल से इन्द्रिय, बल, आयु, उच्छ्वास- इन दश प्राणोंको उल्लंघन कर गए हैं ऐसे सिद्ध परमात्मा सो मात्र केवलज्ञानको अनुभव करते हैं । । ३९ । ३
इस तरह तीन प्रकार चेतनाके व्याख्यानकी मुख्यतासे दो गाथाएं पूर्ण हुई । समय व्याख्या गाथा- ४०
अथोपयोगगुणव्याख्यानम् ।
raओगो खलु दुविहो णाणेण य दंसणेण संजुत्तो ।
जीवस्स सव्वकालं अणण्णभूदं वियाणीहि ।। ४० ।। उपयोगः खलु द्विविधो ज्ञानेन च दर्शनेन संयुक्तः । जीवस्य सर्वकालमनन्यभूतं विजानीहि ।। ४० ।। आत्मनश्चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोगः । सोऽपि द्विविधः - ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगश्च ।
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