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पंचास्तिकाय प्राभृत
१२७ जगति कर्मनोकर्मापेक्षया कारणमपि न भवतीति । अत्र गाथासूत्रे य एव शुद्धनिश्चयेन कर्मनोकर्मापेक्षया कार्य कारणं च न भवति स एवानंतज्ञानादिसहितः कर्मोदयजनितनवतरकर्मादानकारणभूतमनोवचनकायव्यापारनिवृत्तिकाले साक्षादुपादेयो भवतीति तात्पर्यम् ।।३६।।
हिन्दी तात्पर्यवृत्ति गाथा-३६ उत्थानिका-आगे सिद्ध भगवानके कर्म और नोकर्मकी अपेक्षा कार्य और कारणभावका अभाव दिखलाते हैं
अन्वयसहित सामान्यार्थ-( जम्हा) क्योंकि ( कुदोचि वि) किसीसे भी ( उप्पण्णो ण) उत्पत्र नहीं हुए हैं ( तेण) इस कारणसे ( सो सिद्धो ) वह सिद्ध भगवान ( कज्जण) कार्य नहीं है। तथा (किंचि वि) किसीको भी ( ण उप्पादेदि) नहीं उत्पन्न करते हैं ( तेण) इस कारणसे (स) यह सिद्ध भगवान ( कारणमवि) कारण भी [ण होदि] नहीं होते हैं।
विशेषार्थ-जैसे संसारी जीव कर्मोक उदयसे नरनारकादि रूपसे उत्पन्न होते रहते हैं वैसे सिद्ध भगवान कर्मोक उदयसे व नोकर्म रूपसे नहीं उत्पन्न होते हैं इसलिये वे किसी के कार्य नहीं हैं, न वे भगवान स्वयं किसी कर्मबन्धको उपजाते हैं, न नोकर्मरूपी शरीर पैदा करते हैं। इसलिये वह सिद्ध भगवान कर्म और नो कर्मकी अपेक्षासे कारण भी नहीं है । इस गाथा सूत्रमें जो कोई शुद्ध निश्चयनयसे कर्म और नोकर्मकी अपेक्षासे न कार्य है, न कारण है वहीं अनंतज्ञानादि सहित है, उसीको ही कर्मोक उदयसे उत्पन्न व नवीन कर्मोंसे ग्रहणमें कारण ऐसे मन वचन कायके व्यापारोंसे निवृत्त होकर साक्षात् ग्रहण करना योग्य
है ।।३६।।
समय व्याख्या गाथा-३७ । अत्र जीवाभावो मुक्तिरिति निरस्तम् ।
सस्सद-मथ उच्छेदं भव्व-मभव्वं च सुण्ण-मिदरं च । विण्णाण-मविण्णाणं ण वि जुज्जदि असदि सब्भावे ।।३७।।
शाश्वतमथोच्छेदो भव्यमभव्यं च शून्यमितरच्च ।
विज्ञानमविज्ञानं नापि युज्यते असति सद्भावे ।।३७।। द्रव्यं द्रव्यतया शाश्वतमिति, नित्ये द्रव्ये पर्यायाणां प्रतिसमयमुच्छेद इति, द्रव्यस्य सर्वदा अभूतपर्यायैः भाव्यमिति, द्रव्यस्य सर्वदा भूतपर्यायैरभाव्यमिति, द्रव्यमन्यद्रव्यैः सदा शून्यमिति,