Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पंचास्तिकाय प्राभृत
हिन्दी तात्पर्यवृत्ति गाथा - ३५
उत्थानिका- आगे कहते हैं कि शुद्ध जीवपना सिद्धोंके होता है । वे सिद्ध पूर्वक या अंतके शरीप्रमाण मात्र आकाशमें व्यापी होते हैं इसलिये व्यवहारसे या भूतपूर्व न्यायसे किंचित् कम अंतिम शरीरके प्रमाण हैं ।
अन्वय सहित सामान्यार्थ - [ जेसिं] जिन सिद्धोंमें [ जीवसहाओ ] संसारी जीवका अशुद्ध स्वभाव [ णत्थि ] नहीं रहता है [य] किन्तु ( तस्स उस जीव स्वभाव का [ सव्वहा ] सर्वथा [ अभावो णत्थि ] अभाव भी नहीं है [ ते ] वे [ भिण्णदेहा ] सर्व देहोंसे जुदे [ वचिगोयरमदीदा ] वचनोंसे अगोचर ऐसे (सिद्धा) सिद्ध भगवान ( होंति) होते हैं।
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विशेषार्थ - कर्मोके उदयसे उत्पन्न जो शरीरधारी आत्मामें इंद्रियादि द्रव्य तथा भाव प्राण थे उन प्राणोंका सिद्धोंमें अभाव हो जाता है। यहाँ शिष्य शंका करता है कि जब द्रव्य तथा भावप्राण ही न रहे तब क्या बौद्धमतकी तरह सर्वथा जीवका अभाव हो जायगा ? इस शंकाका उत्तर कहते हैं कि-जीवके असली स्वभावका नाश नहीं होता वहीँ शुद्ध सत्ता चैतन्य ज्ञानादि रूप शुद्ध भाव प्राण सदा रहते । वे सिद्ध भगवान, शरीररहित शुद्धात्मासे विपरीत जो शरीरकी उत्पत्तिके कारण मन-वचन-काय योग हैं तथा क्रोधादि कषाय हैं उनसे शून्य होनेके कारण शरीरहित अशरीर हैं, वे सिद्ध भगवान संसारकी द्रव्य तथा भाव प्राणोंसे रहित होनेपर भी अपने स्वभावमें प्रकाशमान रहते हैं । इसलिये हम अल्पज्ञानियोंके वचनोंसे उनकी महिमा या स्वभाव कहा नहीं जा सकता है। वे सम्यक्त्व आदि आठ गुणों व इम्हीमें अंतर्भूत अनन्तगुणोंके धारी हैं इसलिये भी उनका वर्णन नहीं हो सकता है। यहाँ यह भावार्थ है कि सौगत अर्थात् बौद्धमती जैसे पर्यायकी अपेक्षा पदार्थोंका क्षणिकपना देखकर उसकी अतिव्याप्ति मानकर द्रव्यरूपसे भी पदार्थोंका क्षणिकपना मान लेता है वैसे इन्द्रियादि दश प्राणोंके धारी अशुद्ध जीवपनेका अभाव देखकर मोक्षकी अवस्थामें केवलज्ञानादि अनंतगुण सहित शुद्ध जीवका भी अभाव मान लेता है ।। ३५ ।।
समय व्याख्या गाथा- ३६
सिद्धस्य कार्यकारणभावनिरासोऽयम् ।
पण कुदोचि वि उप्पण्णो जम्हा कज्जं ण तेण सो सिद्धो ।
उप्पादेदि ण किंचि वि कारण- मवि तेण ण स होदि ।। ३६ ।।