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षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
समयव्याख्या गाथा--२९ जादो सयं स चेदा सव्वण्हू सव्व-लोग-दरसी य । पप्पोदि सुह-मणंतं अव्वाबाधं सगम-मुत्तं ।।२९।। जातः स्वयं स चेतयिता सर्वज्ञः सर्वज्ञः सर्वलोकदर्शी च।
प्राप्नोति सुखमनंतमव्याबाधं . स्वकममूर्तम् ।। २९।। इदं सिद्धस्य निरुपाधिज्ञानदर्शनसुखमर्थनम् । आत्मा हि ज्ञानदर्शनसुखस्वभाव: संसारावस्थायामनादिकम्मरासंकोचिशमशशिपथ्यसंपण किधित् किचिज्जानाति पश्यति, परप्रत्ययं मूर्तसंबद्धं सव्याबाधं सान्तं सुखमनुभवति च । यदा त्वस्य कर्मक्लेशाः सामस्त्येन प्रणश्यन्ति, तदाऽनर्गलासंकुचितात्मशक्तिरसहायः स्वयमेव युगपत्समयं जानाति पश्यति, स्वप्रत्ययममूर्तसंबद्धमव्याबाधमनन्तं सुखमनुभवति च । तत: सिद्धस्य समस्तं स्वयमेव जानतः पश्यतः, सुखमनुभवतश्च स्वं, न परेण प्रयोजनमिति ।।२९।।
हिन्दी समयव्याख्या गाथा-२९ अन्वयार्थ (स: चेतयिता ) वह चेतयिता (आत्मा) ( सर्वज्ञः ) सर्वज्ञ ( च ) और ( सर्वलोकदर्शी ) सर्वलोकदर्शी ( स्वयं जातः ) स्वयं होता हुआ, ( स्वकम् ) स्वकीय ( अमूर्तम् ) अमूर्त ( अव्याबाधं ) अव्याबाध ( अनंतम् ) अनंत ( सुखम् ) सुखको ( प्राप्नोति ) प्राप्त करता
टीका-यहाँ सिद्धके निरुपाधिज्ञान, दर्शन और सुखका समर्थन है।
वास्तवमें ज्ञान, दर्शन और सुख जिसका स्वभाव है ऐसा आत्मा संसारदशामें, अनादि कर्मक्लेश द्वारा आत्मशक्ति संकुचित की गई होनेसे, परद्रव्यके सम्पर्क द्वारा ( इन्द्रियादिके सम्बन्ध द्वारा ) क्रमश: कुछ-कुछ जानता है और देखता है तथा पराश्रित, मूर्त ( इन्द्रियादि ) के साथ सम्बन्धवाला, सव्याबाध ( बाधासहित ) और सान्त सुखका अनुभव करता है, किन्तु जब उसके कर्मक्लेश समस्त विनाशको प्राप्त होते हैं तब, आत्मशक्ति अनर्गल ( निरंकुश )
और असंकुचित होनेसे, वह असहायरूपसे स्वयमेव युगपद् सब ( सर्व द्रव्यक्षेत्रकालभाव ) जानता है और देखता है तथा स्वाश्रित, मूर्त ( इन्द्रियादि ) के साथ सम्बन्ध रहित, अव्याबाध
और अनंत सुखका अनुभव करता है। इसलिये सब स्वयमेव जानने और देखनेवाले तथा स्वकीय सुखका अनुभवन करनेवाले सिद्धको परसे ( कुछ भी ) प्रयोजन नहीं है ।।२९।।