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षद्रव्य--पंचास्तिकायवर्णन परिच्छेद्यस्य विश्वस्य सर्वदेशेषु युगपद्व्यापृता कथंचित्कौटस्थ्यमवाप्य विष्यांतरमनाप्नुवंती न विवर्तते । स खल्वेष निश्चित: सर्वज्ञसर्वदर्शित्वोपलम्भः अयमेव द्रव्यकर्मनिबंधनभूतानां भावकर्मणां कर्तृत्वोच्छेदः । अयमेव च विकारपूर्वकानुभवाभावादौपाधिकसुखदुःखपरिणामानां भोक्तृत्वोच्छेदः । इदमेव चानादिविवर्तखेदविच्छित्तिसुस्थितानंतचैतन्यस्यात्मनः स्वतंत्रस्वरूपानुभूतिलक्षणसुखस्य भोक्तृत्वमिति ।। २८।।
हिन्दी समय व्याख्या गाथा-२८ अन्वयार्थ—( कर्ममलविप्रमुक्त: ) कर्ममलसे मुक्त आत्मा ( ऊर्ध्व ) ऊपर (लोकस्य अन्तम् ) लोकके अन्तको ( अधिगम्य ) प्राप्त करके ( स: सर्वज्ञानदर्शी ) वह सर्वज्ञ-सर्वदर्शी ( अनंतम् ) अनंत ( अनिन्द्रियम् ) अनिन्द्रिय ( सुखम् ) सुखका ( लभते ) अनुभव करता है।
टीका-यहाँ मुक्तवस्थावाले आत्माका निरूपाधिस्वरूप कहा है।
आत्मा ( कर्मरजके ) परद्रव्यपनेके कारण कर्मरजसे सम्पूर्णरूपसे जिस क्षण छूटता है ( मुक्त होता है ), उसी क्षण ( अपने ) ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण लोकके अन्तको पाकर आगे गतिहेतुका अभाव होने से ( वहाँ ) स्थिर हुआ केवलज्ञान और केवलदर्शन ( निज ) स्वरूपभूत होने के कारण उनसे न छूटता हुआ अनंत अतीन्द्रिय सुखका अनुभव करता है । उस मुक्त आत्माको, भावप्राण जिसका लक्षण ( स्वरूप ) है ऐसा जीवत्व होता है चिद्रूप जिसका लक्षण है ऐसा चेतयितृत्व होता है, चित्परिणाम जिसका लक्षण है ऐसा ‘उपयोग' होता है, प्राप्त किये गुए समस्त ( आत्मिक ) अधिकारों की शक्तिमात्ररूप प्रभुत्व होता है, समस्त वस्तुओंसे असाधारण ऐसे स्वरूपकी निष्पत्तिमात्ररूप ( निज स्वरूपको रचनेरूप ) कर्तृत्व होता है, स्वरूपभूत स्वातत्र्य जिसका लक्षण है ऐसे सुखकी उपलब्धि रूप भोक्तृत्व होता है, अतीत अनन्तर (अन्तिम) शरीरानुसार अवगाहपरिणामरूप देहप्रमाणपना होता है, और उपाधिके सम्बन्धसे आत्यंतिक ( सर्वथा ) विविक्त हो जाने से अमूर्तपना होता है । ( मुक्त आत्माको ) कर्मसुयुक्तपना तो कदापि नहीं होता, क्योंकि द्रव्यकर्मों और भावकर्मोंसे पूर्ण मुक्त हो गया है द्रव्यकर्म वे पुद्गलस्वन्ध है और भावकर्म वे चिद्विवर्त चैतन्य के विकार हैं। चित्शक्ति अनादि ज्ञानावरणादिकर्मोसे सम्पर्कसे ( सम्बन्धके ) संकुचित व्यापारवाली होनेके कारण ज्ञेयभूत विश्वके ( समस्त पदार्थोके ) एक-एक देशमें क्रमश: व्यापार करती हुई विवर्तनको प्राप्त होती है। किन्तु जब ज्ञानावरणादिकर्मोका सम्पर्क विनष्ट होता है तब वह ज्ञेयभूत विश्वके सर्व देशोंमें युगपद् व्यापार करती हुई कथंचित् कूटस्थ होकर, अन्य विषयको प्राप्त न होती हुई विवर्तन नहीं करती । वह यह ( चित्शक्तिके विवर्तनका अभाव ), वास्तवमें निश्चित ( नियत, अचल ) सर्वज्ञपनेकी और सर्वदर्शीपनेकी उपलब्धि है यही, द्रव्यकर्मोके निमित्तभूत भावकोंके कर्तृत्वका विनाश है यही, विकारपूर्वक अनुभवके अभावके कारण औपाधिक सुखदुःखपरिणामोंके