Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पंचास्तिकाय प्राकृत
११९ हिन्दी समय व्याख्या गाथा-३३ अन्वयार्थ--( यथा ) जिसप्रकार ( पद्मरागरत्नं ) पद्मरागरत्न ( क्षीरे क्षिप्तं ) दूधमें डाला जाने पर ( क्षीरम् प्रभासयति ) दूधको प्रकाशित करता है, ( तथा ) उसी प्रकार ( देही ) देही ( जीव ) ( देहस्थः ) देहमें रहता हुआ ( स्वदेहमात्रं प्रभासयति ) स्वदेहप्रमाण प्रकाशित होता
टीका—यह देहप्रमाणपनेक दृष्टान्त का कथन है।
जिस प्रकार पद्मरागरत्न दूधमें डाला जाने पर अपनेसे अभिन्न प्रभासमूह द्वारा उस दृधर्म व्याप्त होता है, उसी प्रकार जीव अनादिकालसे कषाय द्वारा मलिनता के कारण प्राप्त शरीरम रहा हुआ स्वप्रदेशों द्वारा इस शरीरा न्यारत होता है। और जिस प्रकार अनिके संयोगसे उस दूधमं उफान आने पर उस पद्मरागरत्नके प्रभासमूहमें उफान आता है । अर्थात् वह विस्तारका प्राप्त होता है ) और दूध बैठ जाने पर प्रभासमूह भी बैठ जाता है, उसी प्रकार विशिष्ट अाहारादिके वश उस शरीरमें वृद्धि होने पर उस जीवके प्रदेश विस्तृत होते हैं और शरीर फिर सूख जाने पर प्रदेश भी संकुचित हो जाते है । पुनश्च, जिस प्रकार वह पद्मरागरत्न दूसरे अधिक दृधर्म डाला जान पर स्वप्रभासमूहके विस्तार द्वारा उस अधिक दूधमें व्याप्त होता है, उसी प्रकार जीव दुसरे बड़े शरीरमें स्थितिको प्राप्त होने पर स्वप्रदेशोंके विस्तार द्वारा उस बड़े शरीरमं व्याप्त होता है। और जिस प्रकार वह पद्मरागरत्न दूसरे क्रम दूध में डालने पर स्त्रप्रभाममूहके संकोच द्वारा उस थोड़े दूध व्याप्त होता है, उसीप्रकार जीव अन्य छोटे शरीरम स्थिानको प्राप्त होने पर स्वप्रदेशोंके संकोच द्वारा उस छोटे शरीरमें व्याप्त होता है ।।३३।।
संस्कृत तात्पर्यवृत्ति गाथा-३३ अथ देहमात्रविषय दृष्यन्त कथयामीत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा सूत्रमिदं प्रतिपादयति । एवमपि विक्षतमत्राथं मनसि संप्रधार्याथवा सूत्रम्याग्रे सूत्रमिदमुचितं भवत्येवं निश्चित्य सूत्रमिदं निरूपयतीति जानिका लक्षणं यथासंभवं सर्वत्र ज्ञातव्यं, जह पउमरायरयणं । यथा पद्मरागरत्नं कर्तृ । कश्यंभूतं ! खितं क्षिप्तं क्व ? खीर-क्षीरे दुग्धे । क्षीरे किं करोति ? पहासयदि खीर-प्रकाशयति साक्षरं, तह देहो देहत्या-तथा देही संसारी देहस्थ: सन्, सदेहमेत्तं पहासयदि-स्वदेहमात्रं प्रकाशवतीति । तद्यथा-अत्र पद्मरागशब्देन पद्मरागरत्नप्रभा गृह्यते न च रत्नं यथा पद्मरागप्रभासमूह: क्षी क्षिप्तस्तलक्षीरं व्याप्नोति तथा जीवोपि स्वदेहस्थो वर्तमानकाले तं देह व्याप्नोति । अथवा यथः विशिष्टाग्निसंयोगवशात्क्षीर वर्द्धमाने सति पद्मरागप्रभासमूहो वर्द्धत हीयमानं च हीयत इति तथा विशिष्टाहारवशाहेहे वर्धमाने सति विस्तरन्ति जीवप्रदेशा हीयमाने च संकोचं गच्छन्नि, अथवा स एवं प्रभासमूहोऽन्यत्र बहुक्षीरे निक्षिप्तो बहुक्षीरं व्याप्नोति स्तोके स्तोकं व्याप्नाति तथा जावपि जगत्त्रयकालत्रयमध्यवर्तिसमस्तद्रव्यगुणपर्यायकसमयप्रकाशेन समर्थविशुद्धज्ञानदर्शनस्वभाव