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षड्द्रव्य - पंचास्तिकायवर्णन
अखण्ड होते हैं । इनमें से कुछ जीव अर्थात् कुछ केवली केवलिसमुद्घातके समय लोकपूरण अवस्थाकी अपेक्षा लोकमें व्याप जाते हैं अथवा दूसरा अर्थ यह है कि सूक्ष्म स्थावर एकेन्द्रिय जीव लोकमें सर्वव्यापी हैं- सर्व ठिकाने भरे हैं। इस अपेक्षा कुछ जीव लोकव्यापी हैं तथा अन्य जे केवली लोकपूरण अवस्था रहित हैं वे अथवा बादर एकेन्द्रिय तथा विकलत्रय व पंचेन्द्रियादि जीव सर्व अव्यापक हैं अर्थात् कहीं है, कहीं नहीं हैं-लोकके सर्व स्थानोंमें नहीं हैं। इन सब जीवोंमें जो जीव रागादि रहित परमानंदमय एक स्वभावरूप शुद्ध जीवास्तिकायकी अवस्थासे विलक्षण मिथ्यादर्शन कषाय तथा योगोंसे यथासंभव संयुक्त हैं ऐसे अनंतजीव संसारी हैं तथा जो इन मिथ्यादर्शन कषाय व योगों से रहित हैं ऐसे अनंत जीव सिद्ध हैं ।
यहाँ यह तात्पर्य है कि जीवनकी आशाको लेकर सर्व प्रकार रागादि विकल्प त्याग करके सिद्ध जीवके समान यह मेरा आत्मा जो परमान्द रूप सुख रसके आस्वादमें परिधान करता हुआ शुद्ध जीवास्तिकाय है सो ही गप करने सोग्य है । १३१-३२ ।। इस तरह पूर्वोक्त "वच्छक्खरं" इत्यादि नव दृष्टांतोंसे चार्वाक मतके अनुसार शिष्यके संबोधन के लिये जीवसिद्धिकी मुख्यतासे तीन गाथाएँ पूर्ण हुईं ।
समय व्याख्या गाथा- ३३
जह पउम - राय- रयणं खित्तं खीरे पभास यदि खीरं ।
तह देही देहत्थो सदेह मित्तं प्रभास यदि ।। ३३ ।। यथा पद्मरागरत्नं क्षिप्तं क्षीरे प्रभासयति क्षीरम् ।
तथा देही देहस्थः स्वदेहमात्रं प्रभासयति ।। ३३ ।।
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एष देहमात्रत्वदृष्टांतोपन्यासः । यथैव हि पद्मरागरत्नं क्षीरे क्षिप्तं स्वतोऽ व्यतिरिक्तप्रभास्कंधेन तद्व्याप्नोति क्षीरं, तथैव हि जीवः अनादिकषायमलीमसत्वमूले शरीरेऽवतिष्ठमानः स्वप्रदेशैस्तदभिव्याप्नोति शरीरम् । यथैव च तत्र क्षीरेऽग्निसंयोगादुद्वलमाने तस्य पद्मरागरत्नस्य प्रभास्कंध उद्बलते पुनर्निविशमाने निविशते च, तथैव च तत्र शरीरे विशिष्टाहारादिवशादुत्सर्पति तस्य जीवस्य प्रदेशाः उत्सर्पन्ति पुनरपसर्पति अपसर्पन्ति च । यथैव च तत्पद्मरागरत्नमन्यत्र प्रभूतक्षीरे क्षिप्तं स्वप्रभास्कंधविस्तारेण तद्व्याप्नोति प्रभूतक्षीरं, तथैव हि जीवोऽन्यत्र महति शरीरेऽवतिष्ठमान: स्वप्रदेशविस्तारेण तद्व्याप्नोति महच्छरीरम् । यथैव च तत्पद्मरागरत्नमन्यत्र. स्तोकक्षीरे निक्षिप्तं स्वप्रभास्कंधोपसंहारेण तद्व्याप्नोति स्तोक क्षीरं, तथैव च जीवोऽन्यत्राणुशरीरेऽवतिष्ठमान: स्वप्रदेशोपसंहारेण तद्व्याप्नोत्यणुशरीरमिति । । ३३ ।।
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