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पंचास्तिकाय प्राभृत
समुदाय पातनिका इसके आगे-जीवा पोग्गलकाया इत्यादि गाथामें जो पहले पांच अस्तिकायोंकी सूचना की गई है उन्हींका विशेष व्याख्यान करते हैं। यहाँ पाठके क्रमसे त्रिपन गाथाओंके द्वारा नव अन्तर अधिकारोंसे जीवास्तिकायका व्याख्यान शुरू किया जाता है। इन त्रिपन गाथाओंमें पहले ही चाकमतके अनुसारी भाव रखनेवाले शिष्यके लिये जीवकी सिद्धि करते हुए नव अधिकार हैं। उनके क्रमकी सूचना यह है कि 'जीवोत्ति हवदि चेदा' इत्यादि एक अधिकारकी सूत्र गाथा है जैसा इन नीचेके लिखे दो श्लोकोंमें कहा है। भट्टमतानुसारी शिष्यके लिये सर्वज्ञकी सिद्धिपूर्वक क्रमसे अधिकारोंका व्याख्यान सूचित किया
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तत्रादौ प्रभुता तावज्जीवत्वं देहमात्रता | अमूर्तत्वं च चैतन्यमुपयोगी तथा क्रमात् ।। कर्तृता भोक्तृता कर्मायुक्तत्वं च त्रयं तथा । कथ्यते योगपद्येन यत्र तत्रानुपूर्व्यतः ।।
अर्थात् जीवमें प्रभुता है, जीवपना है व जीव शरीरमात्र प्रमाणसहित है, अमूर्तिक है, चेतनामय है, उपयोगवान है, कर्मोका कर्ता है, कर्मोंका भोक्ता है तथा कर्मोसे छूट भी जाता है । ये नौ अधिकार क्रमसे कहे जाते हैं।
इनमेंसे पहले ही प्रभुत्वके व्याख्यानकी मुख्यतासे भट्ट मतानुसारी शिष्यके लिये सर्वज्ञकी सिद्धि करनेके प्रयोजनसे 'कम्ममल' इत्यादि दो गाथाएँ हैं। फिर चार्वाक मतानुसारी शिष्यके प्रति जीवकी सिद्धिके प्रयोजनसे जीवत्वका व्याख्यान करते हुए ‘पाणेहिं चदुहि' इत्यादि गाथाऐं तीन हैं फिर नैयायिक मीमांसक और सांख्यमतको आश्रय करनेवाले शिष्यके लिये जीव अपने प्राप्त देहके प्रमाण है इसे बतानके लिये 'जह पउम' इत्यादि दो सूत्र हैं। इसके पीछे भट्ट चार्वाक मतके अनुकूल शिष्यके लिये जीवके अमूर्तिकपना बतानके लिये 'जेंसि जीवसहावो' इत्यादि सूत्र तीन हैं । फिर अनादि कालसे जीवके चैतन्य भाव है इसके समर्थनके व्याख्यानको तथा चार्वाक मतके खंडनके लिये 'कम्माणं फल' इत्यादि दो सूत्र हैं। इस प्रकार अधिकारकी गाथाको आदि लेकर पाँच अंतराधिकारके समुदायसे तेरह गाथाएं कहीं।
फिर नैयायिक मतके अनुसार शिष्यके सम्बोधनके लिये "उवओगो खलु दुविहो" इत्यादि उन्नीस गाथा तक उपयोग अधिकार कहा जाता है। १९ गाथाओंके मध्यमें पहले ही ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग इन दो प्रकार उपयोगोंकी सूचनाके लिये "उवओगो खलु" इत्यादि सूत्र एक है। फिर आठ प्रकार ज्ञानके नाम कहनेके लिये 'आभिणि'