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पंचास्तिकाय प्राभूत चार इस तरह समुदायसे नव अंतर स्थलोंके द्वारा उगणीस ( उन्नीस) सूत्रोंसे उपयोग अधिकारकी पातनिका हुई।
अथानंतर वीतराग परमानंदमय अमृरसरूप परम समरसीभावमें परिणमन स्वरूप शुद्ध जीवास्तिकायसे भिन्न जो जीवमें कर्मोंका कर्तापना, कर्मोका भोक्तापना तथा कमोंसे संयोगपना इन तीन बातोंका स्वरूप है उसे सत् या असत् बतलानेके लिये जहाँ-जहाँ आनुपूर्वीके द्वारा अठारह गाथाओं तक व्याख्यान करते हैं । इन अठारह गाथाओंके मध्य में पहले स्थलमें 'जीवा अणाइणिहणा' इत्यादि तीन गाथाओंसे समुदाय कथन है । फिर दूसरे स्थलमें 'उदयेण' इत्यादि एक गाथामें औदयिक आदि पाँच भावोंका व्याख्यान है। फिर तीसरे स्थलमें 'कम्मं वेदयमाणो' इत्यादि छः गाथाओंमें कर्तापनेकी मुख्यतासे व्याख्यान है। फिर चौथे स्थलमें 'कम्मं कम्मं कुचदि' इत्यादि पूर्वपक्षकी गाथा है। पीछे पांचवें स्थलमें इस पक्षके समाधानको सात गाथाएं हैं। इन सात गाथाओंमें पहले ही 'ओगाड गाढ' इत्यादि तीन गाथाओंसे निश्चयनयसे द्रव्य कर्मोका जीव कर्ता नहीं है, ऐसा कहते हैं। फिर निश्चयसे जीवके द्रव्यकर्मोका अकर्ता होने पर भी 'जीवा पोग्गलकाया' इत्यादि एक गाथासे कर्मोके फलका भोक्तापना है तथा 'तम्हा कम्मं कत्ता' इत्यादि एक सत्रसे कर्ता भोक्तापनेका संकोच कथन है। फिर 'एवं कत्ता' इत्यादि दो गाथाओसे क्रमसे जीवके कर्मसे संयुक्तपना व कर्मसे मुक्तपना कहते हैं । इस तरह पूर्वपक्षके उत्तरमें सात गाथाएं है। इस तरह पाठके क्रमसे अठारह गाथाओंके द्वारा पांच स्थलोंसे एकांतमतके निराकरणके के लिये तैसे ही अनेकान्त मतके स्थापनके लिये तथा सांख्यमतानुसारी शिष्यके सम्बोधनके लिये कापना व बौद्धमतके अनुयायी शिष्यको समझानेके लिये भोक्तापना तथा सदाशिवके आश्रित मतिधारी शिष्यका संदेह विनाश करके लिये कर्मसंयुक्तपना इस तरह कर्तापना, भोक्तापना तथा कर्मसुयुक्तपना तीन अधिकार जानने चाहिये । इसके आगे जीवास्तिकाय सम्बन्धी नौ अधिकारोंके व्याख्यानके पीछे 'एक्को जेम महप्पा' इत्यादि गाथा तीनसे जीवास्तिकाय चूलिका है। इस तरह पंचास्तिकाय व छः द्रव्यका प्रतिपादन करनेवाले प्रथम महा अधिकार में छः अन्तर अधिकारोंके द्वारा त्रिपन गाथा प्रमाण चौथे अन्तर अधिकारमें समुदाय पातनिका हुई।
उत्थानिका-आगे संसार अवस्थामें भी रहनेवाले आत्माके शुद्ध निश्चयनयसे उपाधिरहित शुद्धभाव हैं तैसे ही अशुद्ध निश्चयनयसे उपाधि सहित भावकर्मरूप रागादिभाव हैं तथा असद्भूत व्यवहारनयसे भावकर्मकी उपाधिसे उत्पन्न द्रव्यकर्म है ऐसा यथासम्भव प्रतिपादन करते हैं