Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षड्द्रव्य - पंचास्तिकायवर्णन
इत्यादि सूत्र एक है । फिर मति आदि पांच ज्ञानोंके व्याख्यानके लिये : मदिणाण' इत्यादि पाठक्रमसे सूत्र पांच हैं। फिर तीन प्रकारके अज्ञानके क्रमके लिये 'मिच्छत्ता अण्णाणं' इत्यादि सूत्र एक है । इस तरह ज्ञानोपयोगके सात सूत्र हैं ।
आगे चक्षु आदि दर्शनोपयोग चारको कहनेकी मुख्यतासे 'दंसणमवि' इत्यादि सूत्र एक है । इस तरह ज्ञानोपयोग दर्शनोपयोगके अधिकारकी गाथाको लेकर पांच अंतर स्थलोंसे नव गाथाएं हैं। आगे दश गाथाओं तक व्यवहारसे जीव और ज्ञानमें संज्ञा लक्षण प्रयोजनादिकी अपेक्षा प्रभेद होने पर भी निश्चयनयसे प्रदेशोंकी और अस्तित्वकी अपेक्षासे नैयायिकोंके लिये इस ज्ञान और जीवका अभेद स्थापना करते हैं जैसे अग्नि और उष्णताका है। यहाँ जी और का भेद संज्ञा प्रयोजनोंकी अपेक्षासे कहा जाता है। जीव द्रव्यकी जीव ऐसी संज्ञा है, ज्ञानगुणकी ज्ञान ऐसी संज्ञा है । चारों प्राणोंसे जी रहा है, जीवेगा व जी चुका है सो जीव है। यह जीवद्रव्यका लक्षण है। जिससे पदार्थ जाने जावें यह ज्ञान गुणका लक्षण है । जीव द्रव्यका प्रयोजन बन्ध तथा मोक्षकी पर्यायोंमें परिणमन करते हुए भी नाश न होना है। ज्ञान गुणका प्रयोजन पदार्थको जाननेमात्र ही है । इस तरह संक्षेपसे जीव और ज्ञानके भिन्न-भिन्न संज्ञा, लक्षण प्रयोजन जानने योग्य हैं ।
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इन दश गाथाओंके मध्यमें जीव और ज्ञानका अभेद संक्षेपसे स्थापनके लिये 'ण विअप्यदि' इत्यादि सूत्र तीन हैं। फिर द्रव्य और गुणोंका अभेद होनेपर भी नाम आदि की अपेक्षा भेद हैं ऐसा समर्थन करते हुए 'ववदेसा' इत्यादि गाथाऐं तीन हैं, फिर एक क्षेत्रमें रहनेवाले गुण और द्रव्य जो परस्पर अयुतसिद्ध है अर्थात् कभी मिले नहीं अर्थात् जिनका अभेद सिद्ध है व जो परस्पर अमिट आधार आधेयरूप हैं, उन गुण और द्रव्यरूप भिन्नभिन्न जीवादि पदार्थोंमें परस्पर प्रदेश भेद है तो भी आत्मा और ज्ञानका प्रदेश भेद नहीं है । आत्मायें ज्ञान है जैसे तंतुओंमें पदपना है । इत्यादि जो सम्बन्ध है कि यह इसमें है सो समवाय सम्बन्ध कहलाता है । नैयायिकमतमें इसी समवायका निषेध है इसके बतानेके लिये 'ण हि सो समवायाहिं" इत्यादि सूत्र दो हैं। फिर गुण और गुणीमें किसी अपेक्षा अभेद हैं इस सम्बन्धमें दृष्टांत दाष्टन्तिका व्याख्यान करनेके लिये 'वण्णरस' इत्यादि सूत्र दो हैं । दृष्टांतका लक्षण कहते हैं। 'दृष्टौ अंतौ धर्मों स्वभाव अग्निधूमयोः इव साध्यसाधकयोः वादिप्रतिवादिभ्यां कर्तृभूताभ्याम् अविवादेन यत्र वस्तुनि स दृष्टांतः" इति अर्थात् अग्निमें धूमकी तरह जिस पदार्थमें साध्य साधकके स्वभाव वादी प्रतिवादीको बिना किसी विरोध या विवादके दिखलाई पड़े सो दृष्टांत है । संक्षेपसे जैसे दृष्टांत लक्षण है वैसे दान्तिका लक्षण है । इस तरह पहले कहीं नव गाथाओंमें स्थल पांच तथा यहाँ दश गाथाओंमें स्थल