Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षड्द्रव्य --- पंचास्तिकायवर्णन
इसलिये ये कारण कहलाते हैं जबकि जीवद्रव्य यद्यपि गुरु शिष्यादिकी तरह परस्पर एक दूसरेका काम करते हैं तथापि पुद्दलादि पांच द्रव्योंका कुछ भी उपकार नहीं करते हैं। इसलिये अकारण हैं- यह छः द्रव्योंमें नवम कारण अधिकार हुआ ।
शुद्ध पारिणामिक परम भावको ग्रहण करनेवाली शुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे यद्यपि जीव बंध, मोक्ष, द्रव्य या भाव रूप पुण्य पाप तथा घट-घट आदिका कर्ता नहीं है तथापि अशुद्ध निश्चय नयसे शुभ और अशुभ उपयोगोंसे परिणमन करता हुआ पुण्य तथा पापके बंधका कर्ता और उनके फलका भोक्ता है तथा जब यह जीव विशुद्ध आत्म द्रव्यके सम्यक् श्रद्धान, सम्यक् ज्ञान व सम्यक् चारित्रमय शुद्धोपयोगसे परिणमन करता है तब मोक्षका भी कर्ता है और मोक्षके फलको भोक्ता है। शुभ, अशुभ तथा शुद्ध भावोंमें परिणमनेका ही कर्तापना सर्व ठिकाने जानना योग्य है। पुद्गलादि पाँच द्रव्य अपने- अपने स्वभावमें ही परिणमन करते हैं यही उनमें कर्तापना है। वास्तवमें वे पुण्य पापादिके कर्ता नहीं है किन्तु अकर्ता । यह छः द्रव्योंमें दसवाँ कर्ता अधिकार पूर्ण हुआ ।
लोक व अलोक में फैला हुआ एक आकाश द्रव्य है इसलिये यह आकाश सर्वगत कहा जाता है। लोकाकाशमें व्याप्तिकी अपेक्षा धर्म-अधर्म सर्वगत हैं। जीव द्रव्य एक जीवको अपेक्षासे लोक पूर्णकी अवस्थाको छोड़कर असर्वगत है अर्थात् समुद्घातके सिवाय शरीर प्रमाण आकारधारी है । नाना जीवोंकी अपेक्षासे सर्व लोकाकाश जीवोंसे पूर्ण है । पुल द्रव्य लोकप्रमाण महास्कंधकी अपेक्षासे सर्वगत है । शेष पुगलोंकी अपेक्षा सर्वगत नहीं है । लोकभरमें पुद्गल भरे हुए है इसलिये भी पुद्दल सर्वगत है तथा काल द्रव्य एक- एक कालाणु द्रव्यकी अपेक्षा सर्वगत नहीं है परन्तु लोक के प्रदेशोंके प्रमाण असंख्यात काणुओं की अपेक्षा लोकमें सर्वगत है। यह छः द्रव्योंमें ग्यारहवां सर्वगत अधिकार पूर्ण हुआ ।
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यद्यपि सर्व द्रव्य व्यवहार नयसे एक क्षेत्रमें अवगाह पा रहे हैं इससे एक दूसरे में प्रवेश कर रहते हैं तथापि निश्चयनयसे अपने अपने चेतन या अचेतन स्वरूपको नहीं छोड़ते हैं । यह छः द्रव्योंमें अन्योन्य प्रवेश नामका बारहवाँ अधिकार पूर्ण हुआ ।
यहाँ छः द्रव्योंके मध्यमें वीतराग चिदानन्दमय आदि गुण स्वभावका धारी जो अपना ही शुद्ध आत्मद्रव्य है जिसमें मन वचन कायका व्यापार नहीं है वही ग्रहण करने योग्य है । यह भावार्थ है ।