Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पंचास्तिकाय प्राभृत यहाँ शिष्यने प्रश्न किया कि लोकाकाशके बाहर काल द्रव्य नहीं है तब बाहरके आकाश द्रव्यमें परिणति कैसे होगी? इसका उत्तर आचार्य कहते है कि-जैसे लम्बी बड़ी रस्सीके लम्बे बड़े बासंसे या कुंभारके चाकके एक स्थानको हिलाते हुए सर्व ठिकाने हलन चलन हो जाता है अथवा जैसे कामस्पर्शन इंद्रियके एक स्थानमें स्पर्श करते हुए तथा रसन इंद्रिय से स्वाद लेते हुए सवांगमें सुखका अनुभव होता है अथवा जैसे सर्पके.एक स्थानपर काटते हुए व घाव आदिके एक स्थानपर होते हुए सर्व अंगमें दुःखकी वेदना होती है तैसे ही लोकमें ही काल द्रव्य है तोभी सर्व आकाशमें परिणतिको कारण है क्योंकि आकाश एक अखंड द्रव्य है।
दूसरा प्रश्न यह है कि दूसरे द्रव्योंके परिणमनमें सहकारी कारण काल द्रव्य है तब काल द्रव्यके परिणमनका सहकारी कारण क्या है ? इसका समाधान यह है कि जैसे आकाशका आधार आकाश है, ज्ञान, रल या दीपक-स्वपर प्रकाशक हैं ऐसे ही काल द्रव्यकी परिणतिको काल ही सहकारी कारण है। फिर शिष्य प्रश्न करता है कि यदि काल द्रव्य अपनी परिणतिमें आप ही सहकारी कारण है वैसे ही सर्व द्रव्य अपनी-अपनी परिणतिमें सहकारी कारण हो जायेंगे, कालद्रव्यसे कोई प्रयोजन न रहेगा।
इसका समाधान यह है कि सब द्रव्योंको साधारण परिणमनमें सहकारी कारणपना होना यह कालका ही गुण है। जैसे आकाशका गुण सर्वको साधारण अवकाश देना है, धर्मद्रव्यका गुण सर्व साधारणको गमनमें कारणपना है तथा अधर्मद्रव्यका सर्वसाधारणको स्थितिमें सहकारीपना है। यह इसलिये कि एक द्रव्यके गुण दूसरे द्रव्यके गुणरूप नहीं किये जा सकते हैं । यदि ऐसा हो तो संकर व्यतिकर दोष आजावें। यदि सर्व द्रव्य अपनीअपनी परिणतिके उपादान कारण होते हुए सहकारी कारण भी हो जावें तो फिर गति, स्थिति, अवगाहके कार्योंमें धर्म, अधर्म आकाश द्रव्योंके सहकारी कारणसे कुछ प्रयोजन न रहे, स्वयं ही गति, स्थिति अवगाह हो जावे । यदि ऐसा हो तो यह दूषण हो जायेगा कि जीव पुद्गल दो ही द्रव्य रह जायेंगे । आगमसे इसमें विरोध आवेगा । __ यहाँ यह भावार्थ है कि-यह जीव विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभावधारी, शुद्ध जीवास्तिकाय की प्राप्ति न करके, गत अनन्तकालसे संसारचक्रमें भ्रमता चला आया है, इस कारण अब इसे वीतराग निर्विकल्प समाधिमें ठहरकर सर्व रागद्वेषादिरूप विकल्पोंकी लहरोंको त्याग करके उसी शुद्ध जीवको सदा ध्याना चाहिये ।।२४।।
इस तरह निश्चय कालके व्याख्यानकी मुख्यतासे दो गाथाएं पूर्ण हुई।