Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पंचास्तिकाय प्राभृत क्योंकि यह आगमका वचन है कि कार्य उपादान कारणके समान होता है । जैसे जो घट रूप कार्य कुंभार, चक्र, चीवर आदि बाहरी निमित्त कारणोंसे बनता है, उसका उपादान कारण मिट्टीका पिण्ड है। अथवा जो पट या कपड़ा रूप कार्य कुविंद, तुरी, वेम, शालाका आदि बाहरी निमिस कारणोंसे बनता है उसका उपादान कारण तागोंका (धागोंका) समूह है । अथवा ईंघन, अग्नि आदि बाहरी निमित्त कारणोंसे उत्पन्न जो भात रूप कार्य है उसका उपादान कारण चावल या तंदुल है अथवा ककि उदयके निमित्तसे होनेवाले नर नारक आदि पर्याय रूप कार्यका उपादान कारण जीव है । इसी तरह वस्तुओंकी क्रियाविशेषसे प्रगट हो व्यवहार काल है उसका उपादान कारण कालाणु रूप निश्चय काल द्रष्य है ।।२३।।
समय व्याख्या गाथा-२४ । ववगद-पण-वपण-रमो तगाद-दो-गंध-अट्ठ-फासो य । अगुरुलहुगो अमुत्तो वट्टण-लक्खो च कालो त्ति ।। २४।।
व्यपगतपंचवर्णरसो व्यपगतद्विगन्धाष्टस्पर्शश्च । अगुरुलघुको अमूर्तो वर्तनलक्षणश्च काल इति ।। २४।।
हिन्दी समय व्याख्या गाथा-२४ अन्वयार्थ ( काल इति ) काल (निश्चयकाल ) ( व्यपगतपञ्चवर्णरस: ) पांच वर्ण और पांच रस रहित, ( व्यपगतद्विगन्धाष्टस्पर्श: च ) दो गंध और आठ स्पर्श रहित, ( अगुरुलघुकः ) अगुरुलघुकः ) अगुरुलघु, ( अमूर्तः ) अमूर्त ( च ) और ( वर्तनलक्षणः ) वर्तनालक्षणवाला
संस्कृत तात्पर्यवृत्ति गाथा-२४ अश्य पुनरपि निश्चयकालस्य स्वरूपं कथयति,-वबगदपणवण्णरसो ववगददोअट्टगंधफासो य-पंचवर्णपंचरसद्विगंधाष्टस्पशैर्व्यपगतो वर्जितो रहितः । पुनरपि कथंभूतः । अगुरुलहुओ-षट्टानिवृद्धिरूपागुरुलघुकगुणः । पुनरपि किंविशिष्टः । अमुत्तो-यत एव वर्णादिरहितस्तत एवामूर्त: ततश्चैव सूक्ष्मोतीन्द्रियज्ञानग्राह्यः । पुनश्च किंरूप: । वट्टणलक्खो च कालोत्ति-सर्वद्रव्याणां निश्चयेन स्वयमेव परिणाम गच्छतां शीतकाले स्वयमेवाध्ययनक्रिया कुर्वाणस्य पुरुषस्याग्निसहकारिवत् स्वयमेव भ्रमणक्रियां कुर्वाणस्य कुम्भकारचक्रस्याधस्तनशिलासहकारिवद्वहिरङ्गनिमित्तत्वाद्वर्तनालक्षणश्च कालाणुरूपो निश्चयकालो भवति । किंच लोकाकाशाद्वहिर्भागे कालद्रव्य नास्ति कथमाकाशस्य परिणतिरिति प्रश्ने प्रत्युत्तरमाह-यथैकप्रदेशे स्पृष्टे सति लंबायमानमहावरत्रायो महावेणुदण्डे वा