Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन विशेधार्थ--जीव, पुद्गल, धर्मः अधर्म, आकाश, काल-ये छ द्रव्य है । उनमें धर्मादि चार द्रव्योंके गुण पर्याय आगे यथास्थान विशेषरूपसे कहेंगे। यहाँपर पहले जीवके गुण कहते हैं। जीवके गुण, चेतना और उपयोग हैं। यह संग्रह वाक्य, समुदाय कथन तात्पर्य कथन या संपिंडितार्थ कथन जानना । चेतनाके दो भेद हैं-शुद्धचेतना और अशुद्धचेतना तथा उपयोगके दो भेद हैं-ज्ञानोपयोग, दर्शनोपयोग । ज्ञानचेतनाको शुद्धचेतना कहते हैं । कर्मचेतना और कर्मफलचेतनाको अशुद्धचेतना कहते हैं । इन तीन प्रकार चेतनाके स्वरूपको आगे चेतनाके अधिकारमें विस्तारसे कहेंगे । ज्ञानोपयोग सविकल्प है, दर्शनोपयोग निर्विकल्प है। ज्ञानोपयोगके आठ भेद हैं-मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल-पाँच सम्यग्ज्ञान
और कुमति, कुश्रुत, विभंगज्ञान ये तीन अज्ञान । इनमें केवलज्ञान सर्व आवरण रहित शुद्ध है । बाकीके सात ज्ञान मतिज्ञानादि क्षायोपशमिक हैं, आवरण सहित हैं तथा अशुद्ध हैं। दर्शनोपयोग चार प्रकारका है-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन । उनमें देवनदर्शन अधिका साधरण रहिट है तथा शुद्ध है । चक्षु आदि तीन क्षायोपशमिक हैं। आवरणसहित हैं तथा अशुद्ध हैं। अब जीवकी पर्यायें कहते हैं--देव, मनुष्य, नारकी, तिर्यंच ये जीवकी विभाव द्रव्यपर्यायें बहुत प्रकारकी होती हैं। पर्यायोंके दो भेद हैंद्रव्यपर्याय और गुणपर्याय । द्रव्यपर्यायका लक्षण कहते हैं--अनेक द्रव्यस्वरूपको एक ताके ज्ञानका जो कारण हो उसे द्रव्यपर्याय कहते हैं जैसे अनेक वस्तुओं से बनी हुई को एक यान या वाहन कहना । यह द्रव्यपर्याय दो प्रकार की है-एक समान जातीय, दूसरी असमान जातीय । समान जातीय उसे कहते हैं कि दो, तीन, चार आदि परमाणुरूप पुद्गलद्रव्य मिलकर जो स्कन्ध हो जाते हैं वे अचेतनके साथ अचेतनके संबन्धसे होते हैं इसलिये समान जातीय द्रव्यपर्याय कहलाते हैं । अब असमान जातीयको कहते हैं- जीव जब दूसरी गतिको जाता है तब नवीन शरीररूप नोकर्म पुगलोंको ग्रहण करता है उससे मनुष्य देव आदि पर्यायकी उत्पत्ति होती है । चेतनरूप जीवके साथ अचेतन रूप पुद्गलके मिलनेसे जो पर्याय हुई यह असमान जातीय द्रव्य पर्याय कही जाती है । ये समान जातीय तथा असमान जातीय अनेक द्रव्योंकी एकरूप द्रव्य पर्यायें जीव और पुद्गलोमें ही होती हैं तथा ये अशुद्ध होती हैं, क्योंकि अनेक द्रव्योंके परस्पर मिलनेसे हुई हैं। धर्म, अधर्म, आकाश, कालमें परस्पर मिलनेरूप कोई पर्याय नहीं होती है । न परद्रव्यके सम्बन्धसे कोई अशुद्ध पर्याय होती है ।
__ अब गुण पर्यायोंको कहते हैं । वे भी दो प्रकार हैं-स्वभाव गुणपर्याय, विभाव गुणपर्याय । गुणके द्वारा अन्दयरूप एकताके ज्ञानका कारण रूप जो पर्याय हो उसे गुणपर्याय कहते हैं, वह एक द्रव्यके भीतर ही होती है जैसे पुद्गलका दृष्टांत आमके फलमें है कि