Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षड्छ्ष्य-पंचास्तिकायवर्णन विशेषार्थ-पहले तीन गाथाओंमें यह कह चुके हैं कि यद्यपि पर्यायार्थिकरयसे जीव पदार्थ का नरनारक आदि स्लप से उत्पाद और विनाश घटता है तथापि द्रव्यार्थिकनयसे सत्रूप जो विद्यमान पदार्थ उसका विनाश नहीं होता है और न असत्रूप अविधमान पदार्थका जन्म होता है। यहाँ कोई शंका करता है कि जीवका जन्ममरण नहीं होता है तो फिर यह व्याख्यान कैसे सिद्ध होता है कि यह जीव तीन पल्य प्रमाण भोगभूमिमें ठहरकर फिर मरता है अथवा तैंतीस सागर प्रमाण देवगति या नरकगतिमें रहता है फिर मरता है? इसका उत्तर यह है कि यह जो तीन पल्य आदिकी स्थिति जीवोंकी कही गई है सो देव या मनुष्यगति नामा नामकर्मके उदयसे उत्पन्न जो देव या मनुष्यकी पर्याय उसकी स्थितिका परिमाण है, न कि जीव द्रव्यका | बांसकी लकड़ीके दृष्टांतसे इसमें कोई विरोध नहीं है । जैसे बहुत बड़े बांसकी लकड़ीमें बहुत गांठे अपने-अपने पर स्थान विद्यमान हैं, वे ही गांठे परस्पर दूसरी गांठोंपर नहीं मौजूद हैं अर्थात् प्रत्येक गांठ या पर्व भिन्न भिन्न अपनी सत्ता रखती है परन्तु बांसकी लकड़ी सर्व ही पर्यों में अन्वयरूपसे विद्यमान है तो भी जैसी पहली पर्वमें है वैसी दूसरी पर्वके स्थानमें नहीं है यह भी कह सकते हैं, तैसे ही बाँसकी लकड़ीके समान इस जीत नामा पदार्थमें पॉलि. समान नरबारक आदि अनेक पर्यायें अपने-अपने आयुकर्मके उदयके कालमें विद्यमान रहती हैं। ये ही पर्यायें परस्पर एक दूसरेके पर्यायके कालमें विद्यमान नहीं हैं-सर्व पर्यायें भिन्न-भिन्न हैं तथा यह जीव अन्वयरूप से सर्व पर्यों के समान अपनी सर्व पर्यायों में विद्यमान है तो भी मनुष्यादि पर्यायके रूपसे देवादि पर्यायोंमें नहीं है ऐसा भी कह सकते हैं अर्थात् वही जीव नित्य है, वही जीव अनित्य है यह सिद्ध होता है। किस तरह ? सो कहते हैं-जैसे एक देवदत्तको जब पुत्रकी अपेक्षासे देखा जायगा तब उसमें पितापनेकी अपेक्षा गौणपना है, जब उसे पिताकी अपेक्षासे देखेंगे तब उसमें पुत्रकी अपेक्षाको गौण करना होगा। तैसे ही एक जीवद्रव्यको द्रव्यार्थिकनयसे जब नित्यकी अपेक्षा करेंगे तब उसमें पर्यायार्थिकनयसे अनित्यपना गौणरूप रहेगा और जब पर्यायरूपसे अनित्यपनेकी अपेक्षा करेंगे तब द्रव्यरूपसे नित्यपना गौण रहेगा क्योंकि जिसकी विवक्षा होती है वह मुख्य हो जाता है यह वचन है। यहाँ यह तात्पर्य है कि जो पर्यायरूपसे अनित्य है, परन्तु शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे अविनाशी अनन्तज्ञानादिरूप शुद्ध जीवास्तिकाय नामका शुद्ध आत्मद्रव्य है, उसीको रागादि भावोंको त्यागकर ग्रहण करना चाहिये 4 उसीकी भावना करना चाहिये ।।१९।।
इस तरह बौद्धमतको निराकरण करने के लिये एक सूत्र गाथा प्रथम स्थलमें पहले कही थी उसीके विशेष वर्णनके लिये दूसरे स्थलमें चार गाथाएँ कहीं ।