Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षड्द्रव्य - पंचास्तिकायवर्णन
विशेषार्थ - इस संसारी जीवने अनादि कालसे द्रव्यकर्मकी प्रकृतियोंको बाँध रक्खा है अर्थात प्रवाह रूपसे इसके सदा ही आठ कर्म बंधे हुए पाए जाते हैं। जब कोई भव्य काल अदि लब्धिके वशसे भेद रत्नत्रय स्वरूप व्यवहार मोक्षमार्गको और अभेदरत्नत्रय स्वरूप निश्चय मोक्षमार्गको प्राप्त करता है तब वह उन ज्ञानावरणीय आदि कर्मोंकी द्रव्य और भावरूप अवस्थाओंका नाश करके पर्यायार्थिक नयसे सिद्ध अभगवान होजाता है अर्थात् जो सिद्ध पर्याय कभी प्रगट नहीं की थी, उस सिद्ध पर्यायको प्राप्त कर लेता है । द्रव्यार्थिक नयसे तो पहले ही से यह जीव स्वरूप से ही सिद्ध रूप है। जैसे एक बड़ा बाँस है उसके पहले आधे भागमें नाना प्रकार चित्र बने हुए हैं तथा उसके ऊपरका आधा भाग विचित्र चित्रोंके बिना शुद्ध ही है। तब वहाँ जब कोई देवदत्त नामका पुरुष अपनी दृष्टिको उस चित्रित भागको देखता है और उस शुद्ध भागको नहीं देख पाता है तब वह अपने भ्रांति रूप ज्ञानसे उस सर्व बांसको विचित्र चित्रोंसे चित्रित अशुद्ध जानकर उसके आधे ऊपरके भाग भी अशुद्धता मान लेता है तैसे यह जीव संसारकी अवस्थामें मिथ्यात्व व रागद्वेष आदि विभाव परिणामोंके वशसे व्यवहारनयसे अशुद्ध हो रहा है, परन्तु शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे अपने भीतरी स्वभावमें केवलज्ञानादिरूपसे शुद्धरूप ही विराजमान है। जब यह रागादि परिणामों में परिणमन करता हुआ विकल्प रूप इंद्रियज्ञानके द्वारा विचार करता है तब जैसे बाहरी भागमें रागादि रूप अशुद्ध आत्माको देखता है तैसे ही भीतरमें भी केवलज्ञानादि स्वरूप होते हुए भी अपने भ्रामक ज्ञान या मिथ्याज्ञानसे अशुद्धता मान लेता है । जैसे बॉंसमें नाना प्रकार चित्रोंसे मिश्रितपना मिथ्याज्ञानमें कारण है तैसे इस जीवमें मिथ्यात्व व रागादिरूपपना मिथ्याज्ञानका कारण है। जैसे वह बाँस विचित्र चित्रके धोए जानेपर शुद्ध हो जाता है वैसे यह जीव भी जब श्रीगुरुओंके पासमें शुद्ध आत्म स्वरूपके प्रकाश करनेवाले परमागमको जानता है और यह समझता है जैसा कि कहा है “एकोऽहं निर्ममः शुद्धो ज्ञानी योगीन्द्रगोचरः । बाह्याः संयोगजा भावा मत्तः सर्वेऽपि सर्वदा ||" अर्थात् मैं एक अकेला हूँ, मेरा धरपदार्थ कोई नहीं है, मैं शुद्ध हूँ, ज्ञानी हूँ, सर्व ही परके संयोगसे पैदा होनेवाले भाव सदा ही मेरे स्वरूपसे बाहर है इत्यादि । तैसे ही अपने अनुमान ज्ञानसे जानता है कि यह देहादि और आत्मा परस्पर बिलकुल भिन्न हैं क्योंकि दोनों का भिन्न-भिन्न लक्षण है। जैसे जल अग्नि भिन्न-भिन्न लक्षण रखनेसे बिलकुल भिन्न भिन्न हैं। इसी तरह वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञानद्वारा अनुभव करता है। तब इस तरह आगम, अनुमान और स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ज्ञानके प्रतापसे शुद्ध हो जाता है। यहाँ यह तात्पर्य है कि अभूतपूर्व सिद्धधना अथवा शुद्ध जीवास्तिकाय नामका शुद्ध आत्मद्रव्य ही ग्रहण करने योग्य है ।। २० ।।
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